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ज्ञानसार
कषायों के विचारों से लिप्त चित्त को परम मुक्ति का साक्षात्कार होगा । इसलिए शास्त्र-चक्षु प्राप्त कर उसका जतन करो।
पुरःस्थितानिवोधिस्तियगलाकविवर्तिनः !
सर्वान् भावानवेक्षन्ते ज्ञानिनः शास्त्रचक्षुषा ॥२॥१८६॥ अर्थ : ऊर्ध्व अधो एवं तिच्छा नोक में परिणत सर्व भावों को साक्षात्
सम्मुख हो इस तरह, अपने शास्त्ररुपी चक्ष से ज्ञानी पुरुष प्रत्यक्ष
देखते हैं । विवेचन :- चौदह राजलोक का शास्त्रदृष्टि से साक्षात्कार ! मानो चौदह राजलोक प्रत्यक्ष सामने ही न हो ! शास्त्रदृष्टि की ज्योतिकिरण ऐसी तो प्रखर, प्रकाशमय और व्यापक है ! उस में सर्व भावों का दर्शन होता है। ___शास्त्र-दृष्टि ऊपर उठती है तो समग्र ऊर्ध्वलोक का दर्शन होता है। यह सूर्य-चंद्र, ग्रह, नक्षत्र, और तारागण...असंख्य देवी-देवता और देवेन्द्रों का ज्योतिष चक्र ! उस म उपर सौधर्म और इशान, सनत्कुमार और माहेन्द्र देवलोक, तत्पश्चात् ब्रह्मा, लांतक, महाशुक्र सहस्त्रार देवलोक । उस के उपर आनत और प्राणत, फिर आरण और अच्युत देवलाक ! क्या तुमने ये बारह देवलोक देखे हैं ? उस से भी उपर एक के बाद एक नवग्रेवेयक देवलोक को देखो ! अघोर न होकर, तनिक धीरज रखो। अब तुम लोकांत के निकट हो स्थित रमणीय प्रदेश का दर्शन करोगे । देखो उसे, यह 'पांच अनुत्तर' के नाम से सुविख्यात है! यहाँ से सिद्धशिला, जहाँ अनंत सिद्ध भगवंत विराजमान हैं, सिर्फ बारह योजन दूर है। सिद्ध भगवंतो को कैसा सुख है ? अक्षय, अनंत और अव्याबाध ! खैर, अभी तो इसके दर्शन से ही सतुष्ट होइए, इस का अनुभव करने के लिए तो तुम्हें अशरीरो होना होगा। ___अब जरा नीचे देखिए ! सम्हलना, कम्पायमान न होना! सबसे पहले नीचे रहे असंख्य व्यंतरों के भवनों का दर्शन करो.... और वनउपवन में-रमणीय उद्यानों में केलि-क्रोडा करते वाणव्यंतरों को देखा । ये सभी देव हैं, इन्हें 'भवनवासी' कहा जाता है।
इससे भी नीचे उतरिए !
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