________________
३५०
ज्ञानसार
चर्मचक्षुभृतः सर्वे देवाश्चवधिचक्षुषः ।
सर्वतश्चक्षुषः सिद्धा: साधवः शास्त्रचक्षुषः ॥१॥१५॥ अर्थ :- सभी मनुष्य चर्म चक्ष को धारण करनेवाले हैं । देव अवविज्ञान रुरि
चावाले है । सिद्ध केवलज्ञान-केवलदर्शनरुप चक्षुओं से युक्त ,
जबकि साधुजन शास्त्ररुपी चक्ष वाले हैं ! विवेचन : सभी प्राणियों को भले चर्म-चक्षु हों, वे भले ही उस से सृष्टि के समस्त पदार्थों का निरीक्षण करें....लेकिन तुम तो मुनिराज हो ! तुम्हारे चक्षु साक्षात् शास्त्र हैं ! तुम्हें जो विश्वदर्शन और पदार्थदशन करना है, वह शास्त्र-चक्षुत्रों के माध्यम से ही करना है।
· देवी-देवता अवधिज्ञान रूपी चक्षुओं के धनी होते हैं। वे जो कुछ जानते अथवा देखते हैं, वह अवधिज्ञान रुपी अाँखों से हो । मुनिवर्य, तुम अवधिज्ञानी नहीं हो, अपितु शास्त्रज्ञानी हो....। तुम्हें जो कुछ जानना और देखना है, वह शास्त्र की आँखो से ही देखना और जानना है !
सिद्ध भगवंतों का एक नेत्र केवलज्ञान है और दूसरा केवल दर्शन! वे इन नयनों के माध्यम से ही चराचर विश्व का देखते हैं और जानते हैं ! जब कि मुनिराजों का शास्त्र हो चक्षु है । अतः सदैव अपनी आँखों को खुली रखकर ही विश्व-दर्शन करना, दुनिया सारी को जानना ! यदि आँखें बंद कर देखने जाओगे तो भटक जाओगे....।
मूनि की दिनचर्या में २४ घंटे में से १५ घंटे शास्त्र-स्वाध्याय के लिए हैं ! ६ घंटे निद्रा के लिए रखे गये है, जबकि ३ घंटे अाहारविहार और निहार के लिए निश्चित हैं । शास्त्राध्ययन के बिना शास्त्रचक्षु खुलती नहीं।
शास्त्र-चक्षु नयी खोलने की है। उसके लिए विनयपूर्वक सद् गुरूदेव के चरणों में स्थिर हो, शास्त्राभ्यास करना पडता है और अभ्यास करते हुए यदि किसी प्रकार की शंका-कुशंका मन में जन्मे तो उनके पास विनम्र बन अपनी शंका का निराकरण करना चाहिए। निःशंक बने शास्त्र-पदार्थों का विस्मरण न हो जाएँ अत: बार-बार उन का परावर्तन करना चाहिए । परावर्तन से स्मृति स्थिर बन जाती है । तब उन पर चितन, मनन करना चाहिए। शास्त्रोक्त शब्दों का अर्थ-निर्णय करना है। विभिन्न 'नयों' से उसका विश्लेषण करना है और रहस्य
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org