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ज्ञानसार
अनासक्ति पैदा होती है । प्रारंभ-समारंभ का त्याग करता है । संसारमार्ग का विच्छेद होता रहता है और मोक्ष-मार्ग के प्रयाण की गति में स्वयं स्फूर्त बन, गतिमान होता जाता है ।
__ इस तरह गहस्थाश्रम का परित्याग कर अरणगार-धर्म अंगीकार करता है । और कालान्तर से शारिरीक, मानसिक अपरंपार दुःखों का क्षय कर अजरामर, अक्षय पद को प्राप्त करता है । परन्तु परम पद की प्राप्ति के लिये मूलभूत मिथ्या तृप्ति के अभिमान को छोड़ना परमावश्यक है । सांसारिक पदार्थों की वास्तविकता से परिचित हो, उसमें से तप्ति प्राप्त करने की प्रवृत्ति को तिलांजलि देना है । तभी भविष्य का विकास और पूर्णानन्द-परम-पद संभव है ।
पुद्गलैः पुद्गलास्तृप्ति, यान्त्यात्मा पुनरात्मना ।
परतप्तिसमारोपो, ज्ञानिनस्तन्न युज्यते ॥ ५ ।। ७७ ।। अर्थ :- पुद्गलों के माध्यम से पुद्गल, पुद्गल के उपचयरूप त प्ति प्राप्त
करते है । पात्मा के गुणों के कारण आत्मा तृप्ति पाती है । अत: सम्यग्ज्ञानी को पुद्गल की तृप्ति में प्रात्मा का उपचार
करना अनुचित है । विवेचन :- किस से भला, किसको तृप्ति मिलती है ? जड पुद्गल द्रव्यों से भला चेतन आत्मा को क्या तृप्ति मिलती है ? किसी द्रव्य के धर्म का आरोपण किसी अन्य द्रव्य में कैसे कर सकते हैं ? जड़ वस्तु के गुणधर्म अलग होते हैं, जबकि चेतन के अलग। जड़ के गुणधर्म से चेतन की तृप्ति सर्वथा असंभव है । प्रात्मा अपने गुणों से ही तृप्ति पाती है ।
सुन्दर स्वादिष्ट भोजन से क्या प्रात्मा को तृप्ति मिलती है ? नहीं, शरीर के जड़ पुद्गलों का उपचय होता है । जीवात्मा उस तृप्ति का आरोप स्वयं में कर रहा है। लेकिन यह उसका भ्रम है, निरी भ्रान्ति । और वह मिथ्यात्व के प्रभाव के कारण दृढ़ से दृढ़तम बन गयी है । पौद्गलिक तृप्ति में प्रात्मा की तृप्ति मानने की भयंकर भूल के कारण जीवात्मा पुदगलप्रेमी बन गया है। पौदगलिक गुण-दोषों को देख, राग-द्वेष में खो गया है। राग-द्वेष के कारण मोहनीयादि कर्मों के नित नये कर्म-बन्धनों का शिकार बन, चार गति में भटक
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