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________________ भवोद्वेग ३२७ मन में रखना चाहिए। प्रव्रज्याग्रहण करने मात्र से ही दुर्गति पर विजयश्री प्राप्त कर ली है, ऐसी मान्यता मुनि के मन में नहीं होनी चाहिए। वह लापरवाह और निश्चिन्त न बने । यदि मुनिवर भव-भ्रमण का भय तज दें, तो - शास्त्र-स्वाध्याय में प्रमाद करेगा। विकथा (स्त्री, भोजन, देश, राजकथा) करता रहेगा। * दोषित भिक्षा लाएगा । * कदम-कदम पर राग-द्वेष का अनुसरण करेगा । * महाव्रत-पालन में अतिचार लगाएगा । * समिति- गुप्ति का पालन नहीं करेगा । of मान-सम्मान और कीति-यश का मोह जगेगा । * जन-रंजन के लिये सदैव प्रयत्नशील रहेगा। * संयम-क्रिया में शिथिल बनेगा । इस तरह अनेक प्रकार के अनिष्टों का शिकार बनेगा । अतः भव का भय...दुर्गति-पतन का भय, मुनि को होना ही चाहिए । पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने तो संसार को सिर्फ समुद्र की संज्ञा ही दो है । लेकिन 'अध्यात्म सार' में उन्होंने इसे अनेक प्रकार के रूप और उपमाओं से उल्लेखित किया है। उदाहरणार्थ : संसार एक घना वन है, भयंकर कारागृह है, वीरान श्मशान है, अंधेरा कुंपा है आदि । इस तरह भवस्वरूप की विविध कल्पनायें कर उस पर गहरा चिन्तनमनन करना चाहिये । संसार प्रसार है, इसकी अनुभूति हुए बिना इसके वैषयिक सुखों को आसक्ति का पाश कभी नहीं टूटता । साथ ही, भव के प्रति रहे राग को डोर टूटे बिना भव-बन्धन तोड़ने का पुरुषार्थ संभव नहीं । लेकिन इसके लिए भवस्वरूप के चिन्तन में खो जाना चाहिये, तन्मय होना चाहिये । भवसागर के किनारे खड़े रहकर उस की भीषणता का अनुभव करना । भव-श्मशान के एक कोने पर खड़े हो, उसकी वीरानी और भयानकता देखना । भव-कारागृह में प्रवेश कर उसकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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