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ज्ञानसार
अपनी आत्मा की रतिरुप समाधि-ध्यान में वह भय अपने-आप ही
विलीन हो जाता है । विधेचन : संसार का भय ?
क्या मुनिवर्य को संसार का भय रखना चाहिये ? क्या भय उन की चारित्रस्थिरता को नींव है ? ।
चार गति के परिभ्रमरण स्वरूप संसार का भय मुनि को होना चाहिये । तभी वह निज चारित्र में स्थिर हो सकता है । "यदि मैं चारित्र-पालन की आराधना में प्रमाद करूँगा, तो मुझे बरबस संसार की नरक और तिर्यंचादि गति में अनन्त काल तक भटकना पडेगा।" मुनि में यह भावना अवश्य होनी चाहिये । उपरोक्त भावना उसे :
* इच्छाकारादि सामाचारी* में अप्रमत्त रखती है । . क्षमादि दसविध र अतिधर्म में उन्नत रखती है । * निर्दोष भिक्षाचर्या के प्रति जागृत रखती है । * महाव्रतों के पालन में अतिचारमुक्त करती है । * समिति-गुप्ति के पालन में उपयोगशील बनाती है ।
प्रात्मरक्षा, सयम-रक्षा प्रोर प्रवचन रक्षा में उद्यमशील बनाती है।
संसार के भय से प्राप्त संयम-पालन की अप्रमत्तता उपादेय है। 'संसार में मुझे भटकना पड़ेगा'-ऐसा भय आर्तध्यान नहीं, बल्कि धर्मध्यान है।
जब मुनि प्रात्मा की निर्विकल्प समाधि में लीन हो जाता है , तब संसारभय स्वयं अपना अस्तित्व उसमें विलीन कर देता है । वह अपना अस्तित्व स्वतंत्र नहीं रखता । वह मोक्ष और संसार दोनों में सदा नि:स्पृह होता है । उसे न मोक्षप्राप्ति का विचार और ना ही संसारभय को अकुलाहट ।
मोक्षे भवे च सर्वत्र निःस्पहो मनिसत्तमः'
जब ऐसो उच्च कोटि की निर्विकल्प समाधि किसी प्रकार के मानसिक विचार बिना ही प्राप्त होतो है, तब संसार का भय नहीं रहता। जब तक ऐसी आत्म-दशा प्राप्त न हो जाये, तब तक संसार का भय रहना चाहिये पार मुनि को भी ऐसा भय सदा-सर्वदाप्रपने *देखिये परिशिष्ट के देखिये परिशिष्ट ० देखिये परिशिष्ट
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