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मग्नता
अनादिकाल से प्राणी मात्र का यह स्वभाव रहा है कि यदि वह एक बार किसी चीज का उपभोग करेगा, स्वाद चखेगा और वह उसे 'अपूर्व रस से भरपूर/तरबतर लग जायेगा तो उसका स्वाद लेने/ उपभोग करने के पीछे पागल बन जाएगा। हालांकि जगत के भौतिक सुख प्राप्त करना जीवात्मा के हाथ की बात नहीं है । वे उसके लिये सर्वथा अप्राप्य सदृश ही हैं । अतः उसको पाने के लिये अधीर/अातुर/ आकुल-व्याकुल होने के उपरान्त कोई दूसरा मार्ग नहीं है । जबकि ज्ञान मग्नता का सुख अपने हाथ की बात है । जब इसे पाने की इच्छा मन में पैदा हो जाए, तब आसानी से पा सकते हैं ।
सभी बातों का सार यह है कि ज्ञान-मग्नता का सुख, शाब्दिक वर्णन पढ़कर/सुनकर अनुभव नहीं किया जा सकता, बल्कि इसके लिये स्वयं को अनुभव करना पड़ता है ।
शमशंत्यपुषो यस्य, विषोऽपि महाकथा ।
कि स्तुमो ज्ञानपीयुषे, तत्र सर्वाङ्गमग्नता? ॥७॥१५॥ अर्थ : ज्ञानामृत के एक बिन्दु की भी उपशमरुपी शीतलता को पुष्ट करने
वाली अनेकानेक कथायें मिलती हैं, तब ज्ञानामृत में सर्वांग मग्नता/
न अवस्था की स्तुति भला किन शब्दों में की जाए? विवेचन: केवल एक बूद ! ज्ञान-पीयष की एक बंद ! लेकिन उसके असर की/प्रभाव की न जाने कितनी कथाएँ कहें ! किन शब्दों में उसका वर्णन करें ! एक-एक बंद के पीछे चित्त को/मन को उपशम (इन्द्रिय-निग्रह) रस में सराबोर कर देने वाले अगणित आख्यान और महाकाव्यों की रचना की गयी है । ज्ञानामृत की सिर्फ एक अकेली बूंद में मोह, मान, क्रोध, माया और लोभ के धधकते ज्वालामुखी को शान्त करने की असीम शक्ति निहित है । आहार, भय, मैथुन और परिग्रह को बाढ को वह लोटा सकता है। पाप के प्रलय को मिटा सकती है।
सौन्दर्य और यौवन की प्रतिमूर्ति सी नृत्यांगना कोशा की चित्रशाला में निवास कर आर्य स्थूलिभद्र ने कामविजेता बनकर सारे संसार को आश्चर्य चकित कर दिया। भला उसके पीछे कौन सी शक्ति/तत्त्व काम कर रहा था ? सिर्फ ज्ञानामृत की एक बूंद । पूर्णानन्द की एकमात्र
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