SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 48
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४ ज्ञानसार निर्दोष-निष्पाप मदनब्रह्म मुनिराज को पकडकर और गड्डे में फेंक कर क्रूर राजा ने ठंडे कलेजे से उनका शिरच्छेद कर धरती को खून से रंग दिया । लेकिन धीर-गंभीर मुनिराज ने क्रोध पर विजय पाकर आत्मस्वरूप को पूर्णता पाप्त कर ली। उसके पीछे कौन सा परम रहस्य काम कर रहा था ? वही ज्ञानामृत को एक बूद ! पूर्णानन्द की एकमात्र बूद ! • राजसी ऋद्धि-सिद्धियों का त्याग कर राजकूमार से मुनिराज बने ललितांग के आहार पात्र में चार तपस्वी मुनिराजों ने थूक दिया । फिर भी करुणावतार, दयासागर ललितांग मुनि के हृदय-मंदिर में उपशम रस की बांसुरी बजती ही रही । फलतः वे शिवपुरी के स्वामी बने । सोचो, जरा उस उपशम-रसभीनी बांसुरी के मधुर सूर छोडनेवाला कौन था ? वही ज्ञानामृत की एक बूद ! पूर्णानन्द की एकमात्र बंद । . _ ऐसी अगणित आख्यायिकाओं का सर्जन कर ज्ञान-बिंदुओं ने अनादि काल से इस धरती पर उपशमरस का झरना निरन्तर प्रवाहित रखा है और उसमें प्लावित होकर असंख्य आत्मानों ने अपनी संतप्त अन्तरात्माअओं को प्रशान्त किया है । ज्ञानामृत में सर्वाग/संपूर्ण स्नान करने वाले महापुरुषों की स्तुति भला किन शब्दों में की जाए ? यह सब शब्द से परे है । बल्कि इन्हें आँखे मूंदकर अन्तर्मन से देखते ही रहें । सिर्फ देखकर अनुभव करने से विशेष हम कुछ नहीं कर सकते ।। यस्य दृष्टिः कृपावृष्टिगिरः शमसूधाकिरः । तस्मै नमः शुभज्ञानध्यानमग्नाय योगिने ॥८॥१६॥ अर्थ : जिनकी दृष्टि कृपा की दृष्टि है और जिन की वागी उपशम रुपी अमृत का छिड़काव करने वाली है, उन प्रशस्त-ज्ञान ध्यान में सदा सर्वदा लीन रहने वाले महान योगीश्वर को नमस्कार हो। विवेचन: एक नजर देखो तो, उनकी दृष्टि से करुणा की धारा बह रही है ! सिर्फ करुणा....सदैव करुणा! समस्त भूमंडल पर करुणा की वर्षा हो रही है । 'समस्त जीवात्माओं के दुःख दूर हों, सभी जीवों के कर्मक्लेश मिट जाएँ ।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy