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ज्ञानसार
निर्दोष-निष्पाप मदनब्रह्म मुनिराज को पकडकर और गड्डे में फेंक कर क्रूर राजा ने ठंडे कलेजे से उनका शिरच्छेद कर धरती को खून से रंग दिया । लेकिन धीर-गंभीर मुनिराज ने क्रोध पर विजय पाकर आत्मस्वरूप को पूर्णता पाप्त कर ली। उसके पीछे कौन सा परम रहस्य काम कर रहा था ? वही ज्ञानामृत को एक बूद ! पूर्णानन्द की एकमात्र बूद !
• राजसी ऋद्धि-सिद्धियों का त्याग कर राजकूमार से मुनिराज बने ललितांग के आहार पात्र में चार तपस्वी मुनिराजों ने थूक दिया । फिर भी करुणावतार, दयासागर ललितांग मुनि के हृदय-मंदिर में उपशम रस की बांसुरी बजती ही रही । फलतः वे शिवपुरी के स्वामी बने । सोचो, जरा उस उपशम-रसभीनी बांसुरी के मधुर सूर छोडनेवाला कौन था ? वही ज्ञानामृत की एक बूद ! पूर्णानन्द की एकमात्र बंद । .
_ ऐसी अगणित आख्यायिकाओं का सर्जन कर ज्ञान-बिंदुओं ने अनादि काल से इस धरती पर उपशमरस का झरना निरन्तर प्रवाहित रखा है और उसमें प्लावित होकर असंख्य आत्मानों ने अपनी संतप्त अन्तरात्माअओं को प्रशान्त किया है ।
ज्ञानामृत में सर्वाग/संपूर्ण स्नान करने वाले महापुरुषों की स्तुति भला किन शब्दों में की जाए ? यह सब शब्द से परे है । बल्कि इन्हें आँखे मूंदकर अन्तर्मन से देखते ही रहें । सिर्फ देखकर अनुभव करने से विशेष हम कुछ नहीं कर सकते ।।
यस्य दृष्टिः कृपावृष्टिगिरः शमसूधाकिरः ।
तस्मै नमः शुभज्ञानध्यानमग्नाय योगिने ॥८॥१६॥ अर्थ : जिनकी दृष्टि कृपा की दृष्टि है और जिन की वागी उपशम रुपी
अमृत का छिड़काव करने वाली है, उन प्रशस्त-ज्ञान ध्यान में सदा
सर्वदा लीन रहने वाले महान योगीश्वर को नमस्कार हो। विवेचन: एक नजर देखो तो, उनकी दृष्टि से करुणा की धारा बह रही है ! सिर्फ करुणा....सदैव करुणा! समस्त भूमंडल पर करुणा की वर्षा हो रही है । 'समस्त जीवात्माओं के दुःख दूर हों, सभी जीवों के कर्मक्लेश मिट जाएँ ।'
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