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________________ तत्त्वष्टि २७७ विषय-कषाय के वशीभूत बने भवसागर में डूबते जीवों को देख तत्त्वदृष्टिधारक महापुरुषों का हृदय करुणामृत से आकंठ भर जाता है ! प्रायः वे डूबते जीवों को संयम को नौका में बिठाकर भव-सागर से पार लगा देते हैं । महा भयंकर भवन में भूले पड़े जीवों को देखकर तत्त्वदृष्टिवाले महात्माओं के मन में असीम करुणा का स्फूरण होता है । फलस्वरुप वे दयाई हो कर जीवों को अभयदान देते हैं, सही मार्ग इंगित करते हैं, उसमें साथ देने का आश्वासन देते हैं और मोक्षमार्ग की श्रद्धा प्रदान करते हैं । अनेकानेक जीवों के नाना प्रकार के संदेह, शंका-कुशंकाओं का निराकरण कर, निःशंक बन, मोक्षमार्गकी आराधना में उन्हें प्रेरित-प्रोत्साहित करते हैं । वे समुद्रवत् गंभीर और मेरुवत् अचल अडिग होते हैं। उपसर्ग-परिषह से उन्हें भय नहीं होता, ना ही दीन-हीन वृत्ति रखते हैं । नित्यप्रति मोक्षमार्ग की साधना में खोये रहते हैं। वास्तव में ऐसे महात्मा ही महा हितकारी और कल्याणकारी होते हैं । इस दुनिया में उनके बिना अन्य कोई आश्वासन, प्राश्रयस्थान, अथवा आधार नहीं हैं। करूणासभर हृदय से और तत्त्वदृष्टि के माध्यम से किये गये विश्वदर्शन से ये विचार प्रगट होते हैं : "अरे ! इस पृथ्वी पर धर्म की ऐसी दिव्यज्योति बिखरी हुई होने पर भी ये पामर जीव अपनी आँखों पर अज्ञान की पट्टी बांधकर संसार की चौरासी लाख जीवयोनि में निरुद्देश्य भटक रहे हैं । आत्मतत्त्व का विस्मरण कर, व्यर्थ में ही जड़ तत्त्वों से सुख प्राप्त करने का मिथ्या प्रयास कर रहे हैं । नारकीय दुःख, कष्ट और नाना प्रकारकी विटम्बनामों से ग्रस्त हो गये हैं । न जाने कैसे दीन-हीन और दयनीय स्थिति के भोग बन गये हैं ? कैसा करुण ऋदन कर रहे हैं ! क्यों न बेचारों को इन यातनाओं से बचा लूं ? उन्हें धर्म का सही मार्ग बताकर उनके भव-फेरों का अंत कर दू ! उन्हें धर्म का मर्म और रहस्य समझा दू, ताकि वे अनंत दुःख, संताप और परिताप से मुक्त हो जाएँ....भीषण भव-सागर से पार उतर जाएँ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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