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ज्ञानसार
तोडने में अनन्य सहायक ऐसे ज्ञान की आवश्यकता नहीं होती है । लेकिन जो ऐसे ज्ञान के धनी हैं वे विश्व के लिए अनंत उपकारी और हितकारी होते हैं । तत्त्वष्टियुक्त जीव ऐसे महापुरुषों को ही 'महात्मा' के रूप में सम्बोधित करते हैं । साथ ही नित्यप्रति उनकी सेवा-भक्ति और उपासना करते हैं ।
महात्मा बनने के अभिलाषी जीव को ज्ञानदृष्टि से युक्त होना अत्यंत जरूरी है । क्योंकि ज्ञान-दृष्टि के बिना महान नहीं बन सकते ! इस तत्त्व को जानने वाला मनुष्य तत्त्वज्ञान को पाने का प्रयत्न करेगा ही।
सिर्फ कोई स्वांग रचकर अथवा बाह्य प्रदर्शन कर कथित महात्मा बनना, उसे रूचिकर नहीं होता है ! वह सदा-सर्वदा निष्पाप और ज्ञानपूर्ण जीवन में ही महानता के दर्शन कर, उस मार्ग पर चलता रहता है।
न विकाराय विश्वस्योपकारयव निमिताः । स्फुरत्कारुण्यपीयूषवृष्टयस्तत्त्वदृष्टयः ॥८॥ १५२॥ अर्थः स्फूरित करूणा रूप अमृत-धारा की वृष्टि करने वाले तत्त्वदृष्टि
धारक महापुरुषों की उत्पत्ति विकार के लिए नहीं, अपितु विश्व
कल्याण हेतु ही है । विवेचन :- तत्त्वदृष्टि वाले माहपुरूष यानी
-करुणामृत का अभिषेक करने वाले ! -विश्व पर निरंतर उपकार करने वाले !
-राग-द्वेषादि विकारों का उच्छेदन करने वाले! ग्रहण और प्रासेवन शिक्षा के माध्यम से और स्व-पर आगम ग्रंथों के सूक्ष्मातिसूक्ष्म रहस्यों की प्राप्ति द्वारा ही तत्त्वदृटि महापुरुषों की उत्पत्ति होती है ! जिनशासन के प्राचार्य, एवं उपाध्याय ऐसे तत्त्वदृष्टि महापुरुषों को प्रशिक्षित करने में रत रहते हैं।
विश्व में राग द्वेषादि विकारों को विकसित एवं विस्तृत करने का कार्य तत्त्वदृष्टिवाले महापुरूष नहीं करते, बल्कि उस को विनष्ट करने का भगिरथ कार्य करते हैं।
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