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लोकसंज्ञा-त्याग
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मैं लोकमार्ग का नहीं, बल्कि लोकोत्तर मार्ग का यात्री हूं । लोक मार्ग और लोकोत्तर मार्ग (जिन मार्ग) में जमीन-पाकाश का अन्तर है ! लोकमार्ग मिथ्या धारणाओं पर चलता है, जबकि लोकोत्तर-मार्ग केवलज्ञानी वीतराग भगवंत द्वारा निर्देशित निर्भय-मार्ग है । अतः लोकोत्तर-मार्ग का परित्याग कर मुझे लौकिक मार्ग की पोर हर्गिज नहीं जाना चाहिए ! मुझे लोगों से भला क्या लेना-देना ? मेरा उन से कोई सम्बन्ध नहीं है ! लौकिक मार्ग में स्थित जीवों से मैंने तमाम रिश्तेनातों का विच्छेद कर दिया है । उन का सहवास नहीं, ना ही उनका किसी प्रकार का अनुकरण ! क्यों कि उनकी कल्पनाएं, विचार, व्यवहार, धारणा और आदर्श अलग होते हैं ! जबकि मेरी कल्पना-सष्टि, धारणाएँ और आदर्श अलग होते हैं ! जिन्दगीपर्यंत लोकोत्तर मार्ग-जिनमार्ग का अनुसरण करूँगा, न कि लोकमार्ग का! हर प्रसंग और हर घटना में मैं देवाधिदेव जिनेश्वर भगवंत को प्रसन्न करने का प्रयत्न करूंगा, ना कि दुनिया के लोगों को ! सामान्य जीवों को प्रसन्न करने का मेरा प्रयोजन ही क्या है ?"
"संसार की विषम पर्वतमालानों को लांघकर मैं छठे गुरणस्थान पर पहुँचा हूँ ! मैं लोकोत्तर मार्ग में स्थित हूँ, फिर भला लोक-संज्ञा से प्रीति क्यों रखू ? क्योंकि लोक-संज्ञा में दुबारा संसार के विषम पहाड़ों पर चढाई करना पड़ता है । अनेकविध मानसिक विषमताएँ उस मार्ग में अवरोध उत्पन्न करती हैं। इसके बजाय मैं लोकोत्तर मार्ग के आदर्शों का ही अवलम्बन करूंगा । उन यादों के पीछे मेरे मन, वचन, काया की समस्त शक्ति लगा दूंगा । मुझे लोगों से कोई मतलब नहीं ! वे दिन-रात बैषयिक सुख में आकंठ डूबे रहते हैं, जबकि मुझे पूर्णतया निष्काम योगी बनना है । संसार के जीव, जड संपत्ति के माध्यम से अपने वैभव और महत्ता का मिथ्या प्रदर्शन करते हैं, जबकि मुझे सच्चे दिल से ज्ञान, दर्शन-चारित्र की अनूठी संपदा से प्रात्मोन्नति की साधना करना है । लोक बहिई ष्टि होते हैं, जबकि मुझे ज्ञानदृष्टि से अपना विकास करना है । जोव अज्ञान और अशांति की ओर अंधी दौड लगा रहे हैं । जबकि मुझे केवलज्ञान की और निरंतर गतिशील होना है। ऐसी स्थिति में जीव भोर मुझ में साम्य कैसा ? मैं तो अपना छठा गुणस्थान ही कायम रखूगा और सातवें....आठवें गुणस्थान पर पहुँचने के
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