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(२) धर्मक्रिया में प्रयुक्त शब्द, यह वर्णयोग है । (३) शब्दाभिषंय का व्यवसाय, यह अर्थयोग है । (४) बाह्य प्रतिमादि विषयक ध्यान, यह प्रालंबन योग है । (५) रूपी द्रव्य के आलंबन से रहित निर्विकल्प चिन्मात्र समाधि, यह एकाग्रता-योग है।
___ इन पांच योगों में पहले चार योग 'सविकल्प समाधि'-स्वरुप हैं जबकि पांचवां योग निर्विकल्प-समाधि'-स्वरूप है ।
इन पांचों प्रकार में पहला प्रकार 'पासन' है। प्रत्येक योगाचार्य ने योग का आरंभ आसन से ही निर्दिष्ट किया है। अष्टांग योग में भी प्रथम स्थान प्रासन को ही है । 'आसन' के माध्यम से शारीरिक चंचलता, अस्थिरता और उद्विग्नता दूर करनी होती है । जब तक शारीरिक स्थिरता नहीं आती. तब तक मानसिक स्थिरता भी प्राय: असंभव है।
हमारी समस्त धार्मिक क्रियायें, उदाहरणार्थ : सामायिक, चैत्यवंदन प्रतिक्रमण आदि में 'प्रासन का महत्त्व है । सामायिक में सुखासन, पद्मासन अथवा सिद्धासन में बैठा जाय और स्वाध्याय, जाप व ध्यानादि क्रियायें संपन्न की जायें, तो उक्त क्रियायें निःसन्देह प्रभावोत्पादक सिद्ध होती हैं। प्रतिक्रमण में 'कायोत्सर्ग' किया जाता है,वह भी एक प्रकार का प्रासन ही है । अतः कायोत्सर्ग के दोष टालने का लक्ष्य होना चाहिये ।
ठीक उसी तरह मुद्राओं का भी लक्ष्य होना चाहिये । किस क्रिया में किस मुद्रा का प्रयोग किया जाए, उस का यथेष्ट ज्ञान होना आवश्यक है। वैसे ही सूत्रार्थ का पर्याप्त ज्ञान और उसका उपयोग चाहिए । उच्चारण भी शुद्ध होना चाहिए । हमारे सामने प्रतिमा स्थापनाजी आदि जो आलंबन हो, उसके प्रति दृष्टि स्थिर होना जरुरी है। इस प्रकार यदि धर्मक्रिया की जाये, तो क्रिया ही महान योग बन जाती है । यही योग आत्मा को मोक्ष के साथ जोड़ देता है।
• बैठने का ढंग नहीं, सूत्रोच्चारण में शुद्धि नहीं, अर्थोपयोग के प्रति उपेक्षा भाव, मुद्राओं का ख्याल नहों और आलंबन के संबन्ध में पूरी लापरवाही ! ऐसा योग आत्मा को मोक्ष के साथ नहीं जोड़ पाता ! अरे, योग के बल पर भोग-प्राप्ति के नित्यप्रति जो स्वप्न देखते हैं, ऐसे रो-तमो गुरण से आच्छादित जीव योग की कदर्थना करते देखे जाते हैं ।
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