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योग
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कर्मयोग द्वयं तत्र, ज्ञानयोग त्रयं विदुः ।
विरतेष्वेव नियमाद, बीजमात्रं परेष्वपि ।।२।।२१०।। अर्थ :- उसमें से दो कर्मयोग और शेष तीन ज्ञानयोग, जानने वाले विरति
वंतों में अवश्य होते है, जबकि अन्यों में भी बीजरुष हैं । विवेचन :- 'ज्ञान-क्रियाभ्यां मोक्ष: ज्ञान और क्रिया के संयोग से मोक्ष होता है । इन पाँच योगों में दो क्रियायोग हैं और तीन ज्ञानयोग ।
-स्थान और शब्द, क्रियायोग हैं । -अर्थ, प्रालंबन और एकाग्रता ज्ञानयोग हैं ।
कायोत्सर्ग, पद्मासनादि आसन, योग-मुद्रा, मुक्तासूक्ति-मुद्रा एवं जिनमुद्रा आदि मुद्राओं का समावेश क्रियायोग में है । यदि हम आसन
और मुद्राओं की सावधानी बरते बिना प्रतिक्रमण, चैत्यवन्दनादि वार्मिक क्रियायें संपन्न करें, तो क्या वह क्रिया-योग कहलायेगा ? क्या हम क्रियायोग को भी सांगोपांग आराधना करते हैं ? प्रतिक्रमणादि में कायोत्सर्ग करते हैं, क्या वह नियमानुसार होता है ? कायोत्सर्ग कैसे किया जाय, इसका प्रशिक्षण लिये बिना कायोत्सर्ग करने वाले क्या 'स्थान योग' की उपेक्षा नहीं करते ? अरे, उन्हें यह भी ज्ञात नहीं कि कायोत्सर्ग भी एक तरह का योग है ! पद्मासनादि आसन भी योग ही हैं । योगमुद्रादि मुद्रायें भी योग का ही प्रकार है । किस समय किन मुद्राओं का उपपोग करना चाहिये, इसका ख्याल कितने जीवों को है ? 'वर्ण-योग' की आराधना भी क्रिया योग है । सामायिकादि के सूत्रो का उच्चारण किस पद्धति से करते हैं ? क्या उसमें शुद्धि का लक्ष्य है ? उनमें रही संपदाओं (अल्पविराम, अर्घविराम और पूर्णविराम ) का ख्याल है? क्या एक नवकारमंत्र का उच्चारण भी शुद्ध है ? यदि इसी तरह स्थानयोग एवं वर्णयोग का पालन न करें और क्रियायें करते रहें, तो क्या क्रियायोग के आराधक कहलायेंगे ?
'ज्ञान-योग' में प्रत्येक सूत्र का अर्थबोध होना नितान्त आवश्यक है । मानसिक स्थिरता और चित्त की प्रसन्नता क्रियायोग में तभी संभव है, यदि उसका सही-सही अर्थबोध होता हो । अर्थज्ञान इस तरह प्राप्त करना चाहिये कि, जिससे सूत्रों का आलंबन लिये बिना अर्थों का संकलन अबाध रूप से चलता रहे और उसके भाव-प्रवाह में जीव अपने आप प्रवाहित हो उठे ।
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