________________
४४
ज्ञानसार
स्तिकाय से व्यतिरिक्त द्रव्य मात्र लोकाकाशव्यापी ही है, जब कि आकाशास्तिकाय लोक-अलोक दोनों में व्याप्त है ।
धर्मास्तिकायादि चार अस्तिकायों को आकाश अवकाश देता है। अर्थात् धर्मास्तिकायादि चार अस्तिकाय लोकाकाश को अवगाहित करते
___'अवगाहिनां धर्मपुद्गलजीवानामवगाह आकाशस्योपकार : ।'
-तत्त्वार्थभाष्य, अ. ५ सू. १८ जीवास्तिकाय
जो जीता है, जियेगा और जिया है, वह जीव कहलाता है । 'जीवंति जीविष्यन्ति, जीवितवन्त इति जीवाः' संसारी जीव दस प्राणों से जीता है, जिएगा और जिया है। पांच इन्द्रिय, मन-वचन और काया, आयूष्य और उच्छवास, ये दस प्राण हैं । प्रत्येक जीव असंख्यप्रदेशात्मक होता है । स्वदेहव्यापी होता है । अरुपी और अमूर्त होता है । अनुत्पन्न तथा अविनाशी होता है। _ 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' (तत्वार्थ, अ. ५, सू. २१)-अन्योन्य उपकार करना यह जीवों का कार्य है । हित के प्रतिपादन द्वारा और अहित के निषेध द्वारा जीव एक दूसरे पर उपकार कर सकते हैं। पुद्गल नहीं कर सकते ।
जीव का अंतरंग लक्षण है:-उपयोग । 'उपयोगलक्षणो जीवः' । पुद्गलास्तिकाय
जिसका पूरण-गलन स्वभाव हो वह पुद्गल है । अर्थात् जिसमें हानि-वृद्धि हो, उसे पुद्गल कहा जाता है । पुद्गल परमाणु से लगाकर अनन्ताणुक स्कंध तक होते हैं । 'पुद्गल के चार भेद हैं । स्कंध, देश, प्रदेश और परमाणु । पुद्गल रुपी हैं । जिसमें स्पर्श-रस-गंध और वर्ण हो वह पुद्गल कहलाता है । 'स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः' (तत्त्वार्थ, अ. ५. सू. २३) पंचास्तिकाय में श्री कुन्दकुन्दाचार्यजी ने पुद्गल को पहचानने की रीति बताते हुए कहा है1 खंधा य खंधदेसा खंधपदेसा य होंति परमाणु । इति ते चदुवियप्पा पुग्गलकाया मुणेयव्वा ॥७४।। -पंचास्तिकाय-प्रकरणे
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org