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________________ १४० अर्थ : तपः श्रुतादिना मत्तः क्रियावानपि लिप्यते । भावनाज्ञानसंपन्नो, निष्क्रयोऽपि न लिप्यते ॥५॥६५ || ज्ञानसार श्रुत और तपादि के अभिमान से युक्त, क्रियाशील होने पर भी कर्म - लिप्त बनता है, जब कि क्रियाविरहित जीव यदि भावना-ज्ञानी हो तो वह लिप्त नहीं होता । .... विवेचन :- प्रतिक्रमण- प्रतिलेखनादि विविध क्रियाओं में रात-दिन खोया, तप- जप और ज्ञान- ध्यान का अभिलाषी हो, फिर भी अपनी क्रिया का अभिमान करता हो तो उसे कर्म - लिप्त हुग्रा ही समभो । 'मैं तपस्वी .... मैं विद्वान् ... मैं विद्यावान् .... मैं बुद्धिमान् .. मैं क्रियावान हूँ -' इस तरह अपने उत्कर्ष का खयाल अथवा अभिप्राय, मिथ्याभिमान है । एक तरफ तप त्याग और शास्त्राध्ययन चलता रहे और दूसरी तरह अपनी क्रिया के लिये मन में अभिमान की धारा जोरों से प्रवाहित रखता हो । यह निहायत अनिच्छनीय बात है । साधक को अभिमान की परिधि से बाहर आना चाहिये । मिथ्याभिमान के घेरे को तोड़ देना चाहिये । अपना उत्कर्ष और दूसरे का अपकर्ष करते हुए जीव, आत्मा के शुद्ध-विशुद्ध अध्यवसायों को मटियामेट कर देते हैं । परिणामस्वरूप आत्मा विशुद्ध अध्यवसायों का श्मशान बनकर रह जाता है । जिस स्मशान में क्रोध, अभिमान, मोह, माया, लोभ, लालच के भूतपिशाच निर्बाध रूप से तांडव नृत्य करने लगते हैं और आहार, भय, मैथुन एवं परिग्रह की डाकिनियां निरन्तर अट्टहास करती नज़र आती हैं । साथ ही सर्वत्र विषय विकार के गिद्ध बेबाक उड़ते रहते हैं पूज्य उमास्त्रातिजी 'प्रशमरति' में साधक - आत्मा से प्रश्न करते हैं:' लब्ध्वा सर्व मदहरं तेनैव मदः कथं कार्यः ?' तप-त्याग - ज्ञानादि के प्रालंबन से जहाँ मदहरण होता है, वहां उन्हीं की सहायता से भला अभिमान कैसे किया जाये ? याद रखो, और जीवन में आत्मसात् कर लो कि अभिमान करना बुरी बात है और उसके दुष्परिणाम प्रायः भयंकर होते हैं । 'केवलमुन्माद : स्वहृदयस्य संसारवृद्धिश्च ।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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