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निले पता
मद से दो तरह का नुकसान होता है - हृदय का उन्माद और संसार - परिभ्रमण में वृद्धि । इससे तुम्हें कोई नहीं बचा सकता ।
तप, त्याग और श्रुतज्ञान के माध्यम से 'भावनाज्ञान' की भूमिका तक पहुँचना है । समस्त सत्क्रियाओं के द्वारा श्रात्मा को भावनाज्ञान से भावित करनी है । और यदि एक बार भावनाज्ञान से भावित हो जाओगे, तो दुनिया को कोई ताकत, किसी प्रकार की कोई क्रिया न करने पर भी तुम्हें कर्मलिप्त नहीं कर सकती ।
श्रुतज्ञान और चिन्ताज्ञान के पश्चात् भावनाज्ञान की कक्षा प्राप्त होती है । तब ध्याता, ध्येय और ध्यान में किसी प्रकार का भेद नहीं रह पाता। बल्कि वहां सदा-सर्वदा होती है ध्याता, ध्येय और ध्यान के अभेद को अद्भुत मस्तो ! लेकिन उसको अवधि केवल अन्तर्मुहूत की होती है । उस समय बाह्य धर्म- क्रिया की आवश्यकता नहीं होती । फिर भी वह कर्म - लिप्त नहीं होता ।
लेकिन जिसके श्रुतज्ञान का कोई ठौर-ठिकाना नहीं है, ऐसा जीव यदि श्रावश्यकादि क्रियाओं को सदन्तर त्याग दे और मनमाने धर्मध्यान का आश्रय ग्रहण कर निरन्तर उसमें आकंठ डूबा रहे तो वह कर्मबंधन से बच नहीं सकता । ठीक उसी तरह श्रुतज्ञानप्राप्ति के पश्चात् किसी प्रकार के प्रमाद अथवा मिथ्याभिमान का शिकार बन जाए तो भावनाज्ञान की मंजिल तक पहुँच नहीं पाता ।
अतः तप और ज्ञान रूपी अक्षयनिधि प्राप्त करने के पश्चात् उस से पदच्युत न होने पाये, इसिलिये निम्नांकित भावनाओं से भावित होना नितान्त आवश्यक है ।
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पूर्व पुरुषसिंहों के अपूर्वज्ञान की तुलना में मैं तुच्छ / पामर जीव मात्र हूँ भला किस बात का अभिमान करू ?
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* जिस तप और ज्ञान के सहारे मुझे भवसागर से तिरना है, उसी के सहयोग से मुझे अपनी जीवन- नौका को डुबाना नहीं है । * श्रुतज्ञान के बाद चिन्ताज्ञान और भावनाज्ञान की मंजिल तक पहुँचना है, अतः मैं मिथ्याभिमान से कोसों दूर रहूंगा ।
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भावनाज्ञान तक पहुंचने के लिये आवश्यकादि क्रियाओं का सम्मानसहित आदर करुंगा ।
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