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________________ १४२ अलिप्तो निश्चयेनात्मा, लिप्तश्च व्यवहारतः । शुद्धयत्य लिप्तया ज्ञानी, क्रियावान् लिप्तया दशा ||६ ॥ ८६ ॥ ज्ञानसार अर्थ :- निश्चयनय के अनुसार जीव कर्म - बन्धनों से जकडा हुआ नहीं है, लेकिन व्यवहार नय के अनुसार वह जकडा हुपा है । ज्ञानीजन निर्लिप्त दृष्टि से शुद्ध होते हैं और क्रियाशील लिप्त दृष्टि से । विवेचन :- " मैं अपने शुद्ध स्वभाव में अज्ञानी नहीं.... पूर्णरूपेण ज्ञानी हूँ... पूर्णदर्शी हूँ.... प्रक्रोधी हूँ... निरभिमानी हूँ.... मायारहित हूँ..... निर्लोभी हूँ... निर्मोही हूँ... अनंत वीर्यशाली हूँ.... अनामी और अगुरुलघु हूँ । अनाहारी और अवेदी हूं । मेरे स्वभाव में न तो निद्रा है ना ही विकथा, ना रूप है ना रंग । मेरा स्वरूप सच्चिदानन्दमय है ।" आत्मा की इसी स्वभाव दशा के चिन्तन-मनन से ज्ञानीजन शुद्ध-विशुद्ध बनते हैं । 'निश्चयनय, * की यही मान्यता है । निश्चयनय के अनुसार आत्मा लिप्त है । जबकि लिप्तता ' व्यवहार नय' + के अनुसार है । " मैं जघन्य / अशुद्ध प्रवृत्तियों के कारण कर्म- बन्धनों से जकड़ा हुआ हूँ । कर्म-लिप्त हूँ । लेकिन अब सत्प्रवृत्तियों को अपने जीवन में अपनाकर कर्म- बन्धनों को तोड़ने का उससे मुक्त होने का यथेष्ट प्रयास करूंगा । साथ ही ऐसा कोई कार्य नहीं करूंगा कि जिससे नये सिरे से कर्म - बन्धन होने की जरा भी संभावना हो । इस सद्भावना और सत् प्रवृत्ति के माध्यम से मैं अपनी आत्मा को शुद्ध बनाऊँगा ।" इस तरह के विचारों के साथ यह लिप्त दृष्टि से आवश्यकादि क्रियात्रों को जीवन में आत्मसात् करता हुआ आत्मा को शुद्ध बनाता है । शुद्ध बनने के लिये ज्ञानीजनों को, योगी पुरुषों को 'निश्चय नय' का मार्ग ही अपनाना है । जब कि रात-दिन अहर्निश पापी दुनिया में खोये जीवात्मा के लिये 'व्यवहारनय' का क्रियामार्ग ही सभी दृष्टि मे उचित है । उसे अपनी कर्ममलिन अशुद्ध अवस्था का खयाल कर उसकी सर्वांगीण शुद्धि हेतु जिनोक्त सम्यक् - क्रिया का सम्मान करते हुए आत्मशुद्धिकरण का प्रयोग करना चाहिये । ज्यों-ज्यों पाप क्रियाओं से मुक्त * निश्चयनय का विस्तृत स्वरुप परिशिष्ट में देखिए । * व्यवहारनय की जानकारी के लिए परिशिष्ट देखिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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