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निले पता
होते जाओगे, त्यों-त्यों निश्चयनय की प्रलिप्त दृष्टि का अवलंबन लेकर शुद्ध-ध्यान की तरफ निरन्तर प्रगति करते रहोगे ।
ज्ञान- क्रियासमावेशः सदेवोन्मीलने द्वयोः । भूमिकाभेदतस्त्वत्र भवेदेकैक - मुख्यता ॥७॥ ८७॥
अर्थ :- दोनों दृष्टियों के साथ खुलने से ज्ञान-क्रिया की एकता होती है । यहाँ ज्ञान-क्रिया में गुणस्थानक स्वरूप अवस्था के भेद से प्रत्येक की महत्ता होती है ।
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विवेचन :शुद्धि के लिये दो दृष्टियाँ खुलनी चाहिये । लिप्त दृष्टि और अलिप्त दृष्टि । जब दोनों दृष्टियाँ एक साथ खुलती हैं, तब ज्ञान और क्रिया की एकात्मता सघती है । गुणस्थानक की भूमिका के अनुसार ज्ञान-क्रिया का प्राधान्य रहता है ।
इसमें भी सर्व प्रथम बात है शुद्धि की । मन में शुद्धिकरण की भावना पैदा होनो चाहिये ।
एक बार एक मनुष्य किसी योगी के पास गया । उन्हें प्रणिपात - वन्दन कर विनयभाव से कहा । "गुरुदेव, मैं परमात्मा के दर्शन करना चाहता हूँ । प्राप करायेंगे तो बड़ी मेहरबानी होगी ।"
योगीराज ने नजर उठाकर उसे देखा । क्षरण दो क्षण उसे निर्निमेष दृष्टि से देखते रहे । तब उसका हाथ अपने हाथ में लेकर चल पड़ । गाँव के बाहर बड़ा तालाब था । योगीराज ने उसके साथ शीतल जल में प्रवेश किया । जैसे-जैसे वे आगे बढते गये, जल का स्तर बढता गया । वे दोनों कमर से ऊपर तक गहरे जल में चले गये । फिर भी आगे बढ़ते रहे । पानी सीने तक पहुँच गया। लेकिन रुके नहीं । दाढ़ी तक पहुँच गया, फिर भी आगे बढ़ते रहे और जब नाक तक पहुँच गया, तब योगोराज ने विद्युत वेग से अविलंब उसे पानी के भीतर पूरी ताकत के साथ दबोच लिया । वह छटपटाने लगा । तड़पने लगा । ऊपर आने के लिये हाथ पाँव मारने लगा । लेकिन योगीराज ने उसे दबोचे ही रखा । उसने लाख कोशिश को बाहर निकलने को, लेकिन वह अपने प्रयत्न में कारगार न हुआ । इस तरह पाँच-दस सेकड व्यतीत हो गये । तब योगीराज ने उसे ऊपर उठाया और तालाब
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