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ज्ञानसार
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ज्ञान होना अलग बात है, और ज्ञानदृष्टि होना अलग ! संभव है ज्ञान हो और ज्ञानदृष्टि का अभाव हो ! लेकिन ज्ञानदृष्टि वाले में ज्ञान अवश्य होता है। आज हम ज्ञानप्राप्ति के लिए जरुर प्रयत्न करते हैं, लेकिन ज्ञानदृष्टि के मामले में पूर्णतया अनभिज्ञ हैं। ज्ञानी का पतन संभव है, लेकिन ज्ञानदृष्टि वाले का नहीं । वस्तुत : ज्ञानदृष्टि खुली होनी चाहिए ।
जब तक सिर्फ इतना ज्ञान कि 'में शुद्ध प्रात्म-द्रव्य हूँ..... परपुद्गलों से सर्वथा भिन्न हूं, तब तक परपुद्गलों का आकर्षण, ग्रहण और उपभोग आदि पूदगलभाव की क्रिया जीवन में निरन्तर होती है । पुद्गल-निमित्तक राग-द्वेष और मोह के कीड़े अबाध रुप से दिल को कचोटते रहते हैं । लेकिन ज्ञानदृष्टि का द्वार खुलने भर की देर है कि पुद्गल के मनपसन्द रुप रंग, गंध-स्पर्शादि का व्यापार प्रात्मा में राग-द्वेष और मोह-माया को पैदा करने में असमर्थ होते हैं ! साथ ही राग के स्थान पर विराग, द्वष के बदले करुणा और मोह के स्थान पर यथार्थदर्शिता का उद्भव होता है ।
ज्ञानदृष्टि का द्वार बन्द रहने पर पुद्गलभाव जीवन में रागद्वेष पैदा करते थे, लेकिन ज्ञानदृष्टि का द्वार खुलते ही वह पुद्गलभाव होते हुए भी राग-द्वेष और मोह पैदा करने में सर्वथा असमर्थ बनते हैं ! यह ज्ञानदृष्टि के द्वार खुलने का निशान है, संकेत है ! ज्ञानरष्टि से युक्त आत्मा में विषयों का आकर्षण और कषायों का उन्माद नहीं होगा ! उनकी प्रत्येक क्रिया एक ही प्रकार की होती है, लेकिन मोहष्टि का प्रभाव उसे विनिपात की और खिंच जाता है! जब कि ज्ञानदृष्टि का प्रभाव उसे भवविसर्जन की ओर ले जाता है ! ज्ञानदृष्टि से युक्त और पुद्गल-परान्मुख स्वभाव वाली प्रास्मा का मौन अनुत्तर होता है ।
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