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मौन
१७६ का आदर किया जाए, ऐसे मौन को जीवन में आत्मसात् कर के मोक्षमार्ग का अनुगामी बना जाए, ऐसा अनुरोध पूजनीय उपाध्यायजी महाराज करते हैं !
ज्योतिर्मयीव दीपस्य क्रिया सर्वाऽपि चिन्मयी।
यस्यानन्यस्वभावस्य तस्य मौनमनुत्तरम् ॥८॥१०४।। अर्थ :- जिस तरह दीपक की समस्त क्रियाए (ज्योति का ऊँचा-नीचा होना
वक्र होना और कम-ज्यादा होना) प्रकाशमय होती हैं, ठीक उसी तरह प्रात्मा की सभी क्रियाए ज्ञानमय होती है-उस अनन्य
स्वभाव वाले मुनि का मौन अनुत्तर होता है। विवेचन : मौन की सर्वोत्कृष्ट अवस्था बताते हुए दीपक की ज्योति का उदाहरण दिया गया है । जिस तरह दीपक की ज्योति ऊँची-नीची वक्र अथवा कम-ज्यादा होते हुए भी दीपक प्रकाशमय होता है, ठीक उसी तरह योगी पुरुषों के योग पुद्गल-भाव से निवृत्त होते हैं । ऐसे महात्माओं के मन, वचन, काया की क्रिया ज्ञानमय होती है। उसके
आँतर-बाह्य सारे व्यवहार ज्ञान से परिपूर्ण होते हैं । उनको आहारक्रिया, परोपदेश-क्रिया, सभी ज्ञानमय होती है ।
आश्रव क्रिया को भी ज्ञानदृष्टि निर्जरा-क्रिया में परिवर्तित कर देती है। वह प्रत्येक क्रिया में चैतन्य का संचार करती है। कुरगडु मुनि पाहारग्रहण की क्रिया कर रहे थे । उस पर ज्ञानदृष्टि का पूरा प्रभाव था । फलतः क्रिया चैतन्यमयी हो गयी । परिणामस्वरुप आहारग्रहण करते हुऐ वे केवलज्ञानी बन गये । गुणसागर विवाह-मंडप में परिणय की वेदी पर बैठे थे । विवाह की रस्म पूरी कर रहे थे, कि सहसा क्रिया में चैतन्य का संचार हो गया और वह परिणय की क्रिया करते हुए वीतराग, निर्मोही बन गये । आषाढाभूति रंगभूमि पर अभिनय-क्रिया में खोये हुए थे । उनकी क्रिया ज्ञानदृष्टि से प्रभावित हो गई और फलतः भरत का अभिनय करनेवाले अाषाढाभति की आत्मा केवलज्ञान की अधिकारी बन गयी ।। ___ यहाँ हमें ज्ञानदृष्टि के अजीबोगरीब चमत्कारों की दुनिया में परिभ्रमण कर उक्त चमत्कारों का वैज्ञानिक मूल्याँकन और महत्व समझने का प्रयत्न करने की आवश्यकता है । ज्ञानदृष्टि के यथार्थ स्वरूप को प्रात्मसात् कर ज्ञानदृष्टि प्राप्त करने की जरूरत है।
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