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ज्ञानसार
प्रत्याहृत्येन्द्रियव्यहं समाधाय मनो निजम् ।
दधच्चिन्मात्रविधांतिर्मग्न इत्यभिधीयते ॥१॥६॥ अर्थ : जो आत्मा इन्द्रियसमूह को विषयों से निवृत्त कर, अपने मन को
आत्म-द्रव्य में एकाग/लीन बना, चतन्य स्वरुप प्रात्मा में विश्राम
करती है, वह मग्न कहलाती है। विवेचन : पूर्णता के मेरुशिखर पर चढ़ने से पूर्व ज्ञानानंद की तलहटी में जरा रुक जाम्रो। अपनी आँखें बन्द करो। अपनो चैतन्यावस्था का जायका लो। बाह्य पदार्थों में रमण करने वाली अपनी इन्द्रियों को निग्रहित-संयमित कर, उनमें रही शक्तियों को चतन्य दर्शन के महत कार्य में लगा दो । उसकी ओर प्रवृत्त कर दो । परभाव में भटकते मन की गति को रोक दो और उसे स्व भाव में रमण करने का लीन होने का निर्देश दो।
. चिन्मात्र में विश्रान्ति ! मतलब ज्ञानानन्दमय विश्रांति ! कैसा प्रशस्त, अद्भुत और श्रेष्ठ विश्राम गृह ! अनंतकालीन भव-परिभ्रमरण के दौरान ऐसा अनोखा विश्रामगृह कहीं देखने को नहीं मिला ! बल्कि वहां तो ऐसे विश्रामगह मिले कि उनको विश्रामगृह कहने के बजाय अशान्तिगह अथवा उत्पातगृह की संज्ञा दें, तो भी अतिशयोक्ति न होगी ! साथ ही वहां कलह, अराजकता, संताप और शोक के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं ।
आज तक जीवात्मा ने परभाव को, संसार के पौदगलिक विषयों को ही विश्रामगह का लुभावना नाम देकर वहाँ आश्रय लिया है। अपने बाह्य रूप-रंग से आकर्षक बने ये विश्रामगृह सृष्टि के प्राणी मात्र पर अनोखा जादू कर गये हैं । अपनी रूप-सज्जा के बल पर इन्होंने सबको अपनी मुट्ठी में कर लिया है । फलतः आनन्द की परिकल्पना करते हुए जो जीव उसमें प्रवेश करते हैं, वे चीखते-चिल्लाते, आन्दन करते बाहर आते नजर पाते हैं । वहाँ सर्वस्व लट लिया जाता है और धकियाते हुए उन्हें बाहर निकाल दिया जाता है ।
ज्ञानानंद का विश्रांतिगृह अपूर्व ही नहीं, अपितु अनुपम है। हालांकि उसमें प्रवेश पाने के लिये जीवात्मा को प्रयत्नों की पराकाष्ठा करनी पड़ती है। भगीरथ प्रयत्न करने होते हैं । उसके लिये पौद्गलिक विषयों
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