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ध्यान ] विचार = संक्रम । 1परमाण, आत्मा आदि पदार्थ, इनके 'वाचक
शब्द और कायिकादियोग, इन तीन में विचरण, संच
रण, संक्रमण । २. एकत्व-वितर्क-अविचार
शुक्ल ध्यान के दूसरे प्रकार में है एकत्व
अविचारता के सवितर्कता होती है ।
अर्थात् यहाँ स्वयं के एक आत्मद्रव्य का अथवा पर्याय का या गुण का निश्चल ध्यान होता है । अर्थ, शब्द और योगों में विचरण नहीं होता है और भावश्रुत के आलंबन में शुद्ध-आत्मस्वरुप में चितन होता रहता है ।
शुक्लध्यान के ये दो भेद आत्मा को उपशम श्रेणी या क्षपक श्रेणी में चढ़ाने वाले हैं अर्थात मुख्य रुप से श्रेणी में होते हैं । दूसरे प्रकार के ध्यान के अंत में आत्मा वीतरागी बनती है। क्षपकश्रेणीवाली ध्यानी आत्मा ज्ञानावरणीयादि कर्मों को खपाकर केवलज्ञान प्राप्त करके सर्वज्ञ बनती है। ३. सूक्ष्म क्रिया-अप्रतिपाति
__ यह ध्यान चिन्तनरुप नहीं है। सर्वज्ञ आत्मा को सब आत्म-प्रत्यक्ष होने से, उसे चिन्तनात्मक ध्यान की आवश्यकता रहती ही नहीं । इस तीसरे प्रकार में मन-वचन-काया के बादर योगों का अवरोध होता है । सूक्ष्म मन-वचन-काया के योगों को अवरुद्ध करने वाला एक मात्र सूक्ष्म काय
इस ध्यान में तीन विशिष्टता रही हुई है :१ स्वशुद्ध आत्मानु भूत भावना के आलम्बन से अन्तर्जल्प चलता है । २ श्रुतोपयोग एक अर्थ से दूसरे अर्थ पर, एक शब्द से दूसरे शब्द पर
तथा एक योग से दूसरे योग पर विचार करता है । ३ ध्यान एक द्रव्य से दूसरे द्रव्य पर, एक गुण से दूसरे गुण पर, और एक पर्याय से दूसरे पर्याय पर संक्रमण करता है ।
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