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श्रनात्मशंसा
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वह क्या बकता है, उस हालत में कैसा लगता है, आदि बातों का उसे भान नहीं रहता । वह उसी दौर में पूज्य माता-पिता का अपमान करता है । परम आदरणीय गुरुदेवों का उपहास करता है । अन्य गुणीजनों को तुच्छ समझता है । उनके दोषों को संबोधित कर उन्हें अपमानित करने की चेष्टा करता है ।
क्या ऐसे विषम ज्वर को उतारना है, शान्त करना है ? यदि अभिमान को 'ज्वर' स्वरूप में मान लें तभी यह संभव है । उसे दूर करने के प्रयत्न किये जा सकते हैं । अभिमान के विषम ज्वर से पीडित जीव आत्मकल्याण के मार्ग पर चल नहीं सकता । शायद वह यों कह दे कि, 'मैं मोक्षमार्ग पर ही हूँ,' तो यह उस का मिध्या प्रलाप ही है । पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने प्रस्तुत विषम ज्वर को नेस्तनाबूद करने का उपाय भी सुझाया है :
"जिस विषय का तुम्हें प्रभिमान है जिस पर तुम्हें नाज है, उस विषय में निष्णात / पारंगत बने प्राचीन महापुरूषों के सम्बन्ध में सोचो, विचार करो और उनकी सर्वोत्तम सिद्धि के साथ अपनी तुलना करो ।” सचमुच प्रस्तुत विचारप्रौषधि चमत्कारिक एवं अनूठी है । तुम अपने को उन महापुरुषों के मुकाबले खड़ा पाओगे तो स्वयं को बौने से कम नहीं पाओगे । तुम्हें अपना अस्तित्व नहींवत् प्रतीत होगा और क्षणार्ध में ही तुम्हारा अभिमानज्वर 'नॉरमल' हो जाएगा !
जब
ज्ञान, विज्ञान, बुद्धि, बल, कला, त्याग, व्रत, तपादि विषयों में पारंगत, सिद्ध महापुरुषों के स्मरण मात्र से तुम आश्यर्चचकित रह जानोगे । तुम्हारा अभिमान - ज्वर शीघ्र उतर जायेगा । ठीक वैसे ही आज के युग में भी हम से अधिक विद्वान् और पारंगत कई महापुरुषों का विचार करना जरुरी है : "इन सबकी तुलना में भला, मुझमें अधिक क्या है ? यदि कुछ नहीं, तब यों ही अभिमान करना कहां तक उचित है ?"
शरीर-स :-रूप- लावण्य-ग्रामारामधनादिभिः ।
उत्कर्षः परपर्यायैश्चिदानन्दधनस्य कः ? ||५|| १४१ ।।
अर्थ : शरीर के रूप-लावण्य, गाँव, बाग-बगीचे, धन-धान्यादि और पुत्रपौत्रादि समृद्धि रूप परद्रव्य के पर्यायों से भला ज्ञानानन्द से परिपूर्ण आत्मा को अभिमान कैसा ?
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