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नि:स्पृहता उन फलों की खासियत यह है कि उनका प्रभाव हर कहीं, किसी भी मौसम में एकसा होता है !
हमें यहाँ पौद्गलिक- स्पृहा अभिप्रेत है ! जब अनुकूल पदार्थों की स्पृहा जग पड़े तब समझ लेना चाहिए कि विष-वल्लरी पूर-बहार में प्रस्फुटित हो उठी है ! इसके तीव्र होते ही मनुष्य मूर्छित हो जाता है, उसका चेहरा निस्तेज पड़ता है, मुख सूख जाता है और एक प्रकार का पीलापन तन-बदन पर छा जाता है ! उसकी वाणी में दीनता होती है और जीवन का प्रांतरिक प्रसन्न संवेदन लप्त होता दृष्टिगोचर होता है !
स्पृहा!! अरे भाई, स्पृहा की भी कोई मर्यादा है, सीमा है ? नहीं, उसकी कोई मर्यादा, सीमा नहीं है! स्पहा का विष प्रात्मा के प्रदेश-प्रदेश में व्याप्त हो गया है ! ऊपर से नीचे तक आत्मा जहरीली बन गयी है ! उसने विकराल सर्प का रुप धारण कर लिया है ! मानवदेहधारी जहरीले सर्पो का विष निखिल भूमंडल को, विश्व को मूर्छित, निःसत्व और पामर बना रहा है । धन-धान्य की स्पहा, गध -सुगंध की स्पृहा, रंग-रूप को स्पहा, कमनीय षोडसी रमणियों की स्पहा, मान-सन्मान और आदर-प्रतिष्ठा की स्पहा ! न जाने किस-किस की स्पृहा के विष के फहारे निरंतर उड़ते रहते हैं ! तब भला, स्वस्थता, सात्विकता और शौर्य कहाँ से प्रकट होगा ? फिर भी मानव पागलपन दोहराता हुया दिन-रात स्पहा करता ही रहता है ! दुःख, कष्ट, कलह, खेद, अशांति आदि असंख्य बुराइयों के बावजूद भी वह स्पृहा करता नहीं थकता ! मान लो, उसने समझ लिया है कि 'स्पहा किये बिना जी ही नहीं सकते; जिंदगी बसर करने के लिए स्पृहा का सहारा लिये बिना कोई चारा नहीं !' संभव है कि अमुक अंश में यह बात सच हो !
लेकिन क्या स्पृहा की कोई मर्यादा निर्धारित नहीं हो सकती ? तीव्र स्पृहा के बंधन से क्या जीव मुक्त नहीं हो सकता ? अवश्य मुक्त हो सकता है, यदि ज्ञान का मार्ग अपनाये तो ! उसके बल पर वह विषय-वासना की लालसा को नियत्रित कर सकता है ! ज्ञान-मार्ग का सहयोग लेना मतलब जड़ और चेतन के भेद का यथार्थ ज्ञान
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