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ज्ञानसार
होना ! स्पृहा जन्य अशांति की अकुलाहट होना और स्पृहा की पूर्ति से प्राप्त सुख के प्रति मनमें पूर्णरूपेण उदासीनता होना !
"मैं प्रात्मा हूँ.... चैतन्यस्वरूप हूँ.... सुख से परिपूर्ण हूँ ! जड़ पौद्गलिक पदार्थों के साथ मेरा कोई संबंध नहीं है ! फिर भला, मुझे उसकी स्पृहा क्यों करनी चाहिये ?"
___'जड़-पदार्थो की स्पहा करने से चित्त अशांत होता है ! स्वभाव में से परभाव में गमन होता है, और स्पृहा करने के उपरांत भी इच्छित पदार्थो को प्राप्ति नहीं होती, तब हिंसा, असत्य, चोरी आदि पापों के माध्यम से उसे पूरा करने का अध्यवसाय पैदा होता है ! अशांति... असुख में तीव्रता पा जाती है ! अतः ऐसे जड़ पदार्थों की स्पृहा से दूर ही भले !
__यदि स्पृहा पूर्ण हो जाए तो प्राप्त पदार्थो के प्रति आसक्ति बढ़ जाती है; उसकी सुरक्षा की चिंता पैदा होती है.... प्रात्मा के ज्ञानादि गुणों को संरक्षित रखने की विस्मृति हो जाती है ! तब नौबत यहाँ तक आ जाती है कि व्यवहार के लिए आवश्यक ऐसे न्याय-नीति, सदाचार, उदारतादि गुण भी लुप्त हो जाते हैं ! साथ ही, एक स्पृहा पूरी होते ही दूसरी अनेक स्पृहाओं का पुनर्जन्म होता है ! और उन्हें पूरी करने के लिए प्रयत्न करते समय प्राप्त सुख-शांति का अनुभव नहीं पा सकते ! इस तरह नित्य नई स्पृहा का जन्म होता रहे और उसे पूर्ण करने के भगीरथ प्रयास निरंतर चलते रहते हैं ! फलतः जीवन में शांति, प्रसन्नता का सवाल ही नहीं उठता । ऐसे समय यदि हमारी ज्ञानदृष्टि खुल जाय तो स्पृहा की विष-वल्लरी सूखते देर नहीं लगेगी ! इसीलिए कहा गया है कि ज्ञान रूपी हँसिये से स्पृहा रूपी विष-वल्लरिओं को काट दो ।
निष्कासनीया विदुषा स्पृहा चित्तगृहाद् बहिः ।
अनात्मरतिचाण्डाली संगमङगीकरोति या ॥४॥२॥ अर्थ :- विद्वान के लिए अपने मन-घर से तृष्णा को बाहर निकाल देना ही
योग्य है, जो तृष्णा आत्मा से भित्र पुदगल में रति-रूप चांडालनी का संग स्वीकार करती है ।
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