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________________ ज्ञानसार ८४ संयतात्मा श्रये शुद्धोपयोगं पितरं निजम् । धृतिमम्बां च पितरौ, तन्मां विसृजतं ध्रुवम् ।।१॥५७।। अर्थ : संयमाभिमुख होकर में शुद्ध उपयोग स्वरुप पिता एवं आत्म-रति रुप माता की शरण ग्रहण करता हू । "ओ माता-पिता ! मुझे अवश्य मुक्त कीजिये ।" विवेचन : किसी उत्तम पद अथवा स्थान को पाने के लिये हमें अपने पून पद अथवा स्थान का परित्याग करना पड़ता है। लोकोत्तर मातापिता की अभौतिक वात्सल्यमयी गोद में खेलने के लिये लौकिक मातापितादि प्राप्तजनों का परित्याग किये बिना भला कैसे चलेगा ? हाँ, वह त्याग, राग या द्वेष पर आधारित न हो, बल्कि लोकोत्तर मातापिता के प्रति तीव्र आकर्षण, आदरभाव को लेकर होना चाहिये । अत:ममतामय माता-पिता से प्रार्थना करें । उनके स्नेह-बंधनों से मुक्ति हेतू उनके चरणों में गिर, नम्र निवेदन करें। "यो माता और पिता! हम मानते हैं कि आपके हम पर अनन्त उपकार हैं, अपार प्रेम है और असीम ममता है। लेकिन आपके स्नेहवात्सल्य का प्रत्युत्तर स्नेह से देने में हम पूर्णतया असमर्थ हैं। हमारे हृदय-गिरि से प्रस्फुटित स्नेह-स्त्रोत, श्रद्धेय पिता स्वरूप शुद्ध आत्मज्ञान की दिशा में प्रवाहित हो गया है। हमारी प्रसन्नता 'आत्म-रात'स्वरूप माता के दर्शन में, उसके उत्संग में समाविष्ट है। उनकी चरणरज माथे पर लगाने के लिये हमारा हृदय अधीर हो उठा है और मन-वचन-काया के समस्त योग उसी दिशा में निरन्तर गतिशील हैं । अत:उनके शरणागत बन कृत-कृत्य होने की अनुमति दीजिये ।" - 'शुद्ध-प्रात्मज्ञान' पिता है और 'आत्मरति' माता है । इन का आश्रय ही अभीष्ट है । इनके प्रति प्यार, स्नेह और ममता की भावना रखना महत्वपूर्ण है। किसी विशेष तत्त्व को माता-पिता मानना, मतलब क्या । तनिक सोचो और निर्णय करो । उन्हें सिर्फ मान्यता देने से काम नहीं बनेगा । वस्तुत: अहर्निश उनकी सेवा-सुश्रूषा और उपासना में लगे रहना चाहिये । उनके प्रति सदा-सर्वदा एकनिष्ठ/ वफादार हुए बिना सब निरुपयोगी है । अर्थात् शुद्ध प्रात्मज्ञान का 'परित्याग कर अशुद्ध अनात्म-ज्ञान की गोद में समा जाने की बूरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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