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ज्ञानसार
तुम्हारे अध्यवसाय शुद्ध-विशुद्ध हो जायेंगे ? क्यों व्यर्थ में ही अशांत और उद्विग्न बनने का काम कर रहे हो ? इस से कोई लाभ होनेवाला नहीं है। इस से तो बेहतर है कि तुम सदा-सर्वदा सतरह प्रकार के संयम से युक्त जीवन में मस्त बने रहो। द्रोह, ममता और मत्सर को गहरी खाई में फेंक दो। लोग भले ही उस में मस्त बन, आकंठ डूब कर, अपने आप को कृतकृत्य मानते हो, लेकिन तुम्हें उस का शिकार नहीं बनना है। कीचड़ में, गंदे-पानी के प्रवाह में सुअर लोटता है, हंस नहीं । सदा खयाल रहे, तुम हंस हो ! राजहंस ! ऐसी लोकसंज्ञा के भोग तुम्हें कदापि नहीं होना है ! अतः तुम्हारे लिए लोक संज्ञा का परित्याग श्रेयस्कर है ।
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