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________________ लोकसंज्ञा-त्याग ३४७ द्रोह को त्याग दो, किसी को धोखा मत देना । श्री जिनेश्वर भगवंत के शासन के साथ भूल कर भी कभी दगाबाजी न करना । सदैव निष्ठावान बने रहना। अपने शारीरिक सुख और शान्ति के लिए भगवान के शासन का कदापि परित्याग न करना। उन के सिद्धांत और नियमों का उल्लंघन न करना। तुम्हें भगवान महावीर का वेश प्राप्त है । तुमने उसे परिधान कर रखा है। ध्यान रहे, उसकी इज्जत न जाने पाए। इस वेश के कारण तुम्हें अन्न, वस्त्र, पात्र, पुस्तकादि सामग्री प्राप्त होती है। लोग तुम्हारे समक्ष नतमस्तक होते हैं । तुम्हारा मान-सन्मान करते हैं। अत: जीवन में साधुवेश का कभी द्रोह न करना। ममता को त्याग देना । सांसारिक स्वजन-परिजनों के प्रति रही ममता का परित्याग करना । भक्तजनों पर भूल कर भी ममत्व मत रखमा । तन-बदन उपधि और उपाश्रयादि बाह्य पदार्थों के लिए मन में रही ममता का त्याग करना ही इष्ट है। जब तक अन्य पदार्थों के प्रति ममत्व भावना जागृत रहेगी, तब तक आत्मा के प्रति ममत्व-भाव का सदैव अभाव रहेगा और अन्य पदार्थों के प्रति का ममत्व तुम्हें शांत और स्वस्थ नहीं रहने देगा। गुण के प्रति द्वेष-भाव नहीं रखना । मत्सर अर्थात् गुण-द्वष । गुण द्वष टालने के लिए गुणोजनों का द्वष न करना। सदैव ध्यान रहे, छद्मस्थ आत्माएँ भी गुण-शाली होती हैं । अनंत दोषों के उपरांत भी सिर्फ गुण ही देखने के हैं। गुणानुरागी अवश्य बनना, गुण-द्वषी नहीं । गुणवान के दोष देखने पर भी उसके द्वषी न बनना । द्वषी बनोगे तो तुम स्वयं अशान्त बन जाओगे। हाँ, जिन गुणों का तुम में पूर्णतया अभाव है, उन गुणों का दर्शन यदि अन्य आत्माओं में हो तो तुम्हें विनम्र भाव से उस का अनुमोदन करना है। यदि गुणद्वेषो बन किसी के दोपों का अनुवाद करोगे तो तुम कदापि सुख से रह नहीं सकोगे। तुम्हारा मन हमेशा के लिए प्रशांत, उद्विग्न और क्लेशयुक्त वन जाएगा। यदि तुम गुणवान् जीवों की निंदा टीका, टिप्पणी न करो तो नहीं चलेगा ? क्या निंदा करने से तुम्हारी महत्ता बढ जाएगी? क्या दोषानुवाद करने से तुम अपना प्रात्मोकर्ष कर पायोगे ? इस से Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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