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विद्या
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परिवर्तन में वृत्ति का परिवर्तन पहले होना चाहिए । शरीर तो साधन है, ना कि साध्य । अतः शरीर के साथ सम्बन्ध सिर्फ एक साधन के रूप में ही होना चाहिए । ठीक वैसे व्यवहार भी साधन के रूप में ही होना चाहिए ।
मानव-शरीर मोक्षमार्ग की आराधना का सर्वोत्तम साधन है । अतः शरीर की एक-एक धातु, एक-एक इन्द्रिय और एक-एक स्पंदन का उपयोग मोक्षमार्ग की आराधना के लिए करना चाहिए । शरीर के माध्यम से आत्मा को पवित्र, शुद्ध और उज्जवल बनाना है । लेकिन खेद और आश्चर्य की बात तो यह है कि भ्रान्त मनुष्य आत्मा को ही साधन बनाकर शरीर को शुद्ध और पवित्र बनाने की चेष्टा करता है । उसे पवित्र बनाने हेतु वह ऐसे अजीबोगरीब उपायों का अवलम्बन करता है कि जिससे आत्मा अधिकाधिक कर्म-मलिन होती जाती है । साधन / साध्य का निर्णय करने में गफलत कर साध्य को साधन और साधन को साध्य मान लेता है ।
यह कभी न भूलें कि आत्मा साध्य है । अत: साध्य को जरा भी क्षति न पहुँचे इस तरह साधन के साथ व्यवहार रखना चाहिए । लेकिन अविद्या यह करने नहीं देती ! अविद्या के प्रभाव में रहा जीवात्मा शरीर के लिये एक प्रकार का ममत्म धारण कर लेता है । उसका सारा ध्यान, पूरा लक्ष शरीर ही होता है । वह हमेशा शरीर को पानी से नहलाएगा । उस पर जरा भी धब्बा न रह जाए इसकी खबरदारी बरतेगा । वह गंदा न हो जाए इसकी सावधानी रखेगा । यह सब करते हुए वह आत्मा को साफ करना तो भूल ही जाता है । उसे उसका ( श्रात्मा का ) तनिक भी खयाल नहीं रहता !
अरे भाई, कोयले को हजार बार दूध अथवा पानी से धोया जाए तो भी क्या वह सफेद होगा ? ठीक उसी तरह काया, जो पूर्णरूप से अपवित्र तत्वों से बनी है और दूसरे को अपवित्र बनाना ही जिस का मूल स्वभाव है, उसे तुम स्वच्छ, शुद्ध और पवित्र बनाने की लाख कोशिश करो,.... तुम्हारा हर प्रयत्न निष्फल होगा ।
यः स्नात्वा समताकुण्डे हित्वा कश्यलजं मलम् । पुनर्न याति मालिन्यं सोऽन्तरात्मा परः शुचिः ॥ ५॥ १०६ ॥
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