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ज्ञानसार
ब्रह्म की लीनता में बाधक ऐसे हर तत्त्व को ब्रह्माग्नि में स्वाहा करते तनिक भी हिचकिचाहट अनुभव न करें ।
दृढ संकल्प के साथ प्रचरित ब्रह्मचर्य व्रत से योगी के आत्मबल में वृद्धि होती है । वह आत्मज्ञान की अग्नि में कर्मबलि देते जरा भी नहीं थकता ! कोई आचार-मर्यादा के पालन में उसे अपने मन को नियंत्रित नहीं करना पडता, बल्कि वह सहज ही उस का पालन करता रहता है । 'आचारांगसूत्र' के प्रथम श्रुतस्कंध के नौ अध्ययनों में उल्लिखित मुनि - जीवन की निष्ठाएँ वह अपने जीवन में सरलतापूर्वक कार्यान्वित करता है। क्योंकि परब्रह्म के साथ उस ने एकता की कड़ी पहले ही जोड़ ली होती है ।
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वास्तव में ऐसा है ब्रह्मयज्ञ और ऐसा है ब्रह्मयज्ञ का कर्ता / करनेवाला ब्राह्मण ! ब्राह्मण भला, क्या पाप-लिप्त होगा ? ऐसा ब्राह्मण भला कर्मबंधनों में जकड जाएगा क्या ? नहीं, हर्गिज नहीं । किसी ब्राह्मणी की कुक्षी से उत्पन्न हुआ वह ब्राह्मरण ? नहीं नहीं... जो ब्राह्मयज्ञ करे वह ब्राह्मण ! ब्राह्मण बनने के लिए निरे अज्ञानतापूर्ण यज्ञ कर्म करने से काम नहीं चलता ! पूज्यपाद उपाध्यायजी महाराज ने ब्राह्मण को ही श्रमण, भिक्षु और निर्ग्रन्थ कहा है ! फिर भले ही वह श्रमण हो, भिक्षु हो या निर्ग्रन्थ हो वह सिर्फ ब्रह्मयज्ञ का कर्ता और करानेवाला होना श्रावश्यक है ! उस के जोवन में सिवाय ब्रह्म और कोई तत्त्व न हो, पदार्थ न हो और ना ही कोई वस्तु ! उस की तन्मयता, तल्लीनता, प्रसन्नता...... जो भी हो वह ब्रह्म हो ।
सारांश : - भाव-यज्ञ करो !
- निष्काम यज्ञ करो ! - हिंसक यज्ञ वर्ज्य हो ।
- गृहस्थ के लिए वीतराग की पूजा ब्रह्मयज्ञ है । - कर्म-क्षय के उद्देश्य से भिन्न आशय को लेकर किया गया पुरुषार्थ कर्म-क्षय नहीं करता ।
- स्व-कर्तृत्व के मिथ्याभिमान को ब्रह्मयज्ञ की अग्नि में
स्वाहा कर दो !
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- ब्रह्मार्पण का वास्तविक अर्थ समभो ! - ब्रह्म की परिणति वाला ब्राह्मण कहलाता है ।
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