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ज्ञानसार "इनकी प्राप्ति कैसे होगी ? और नहीं हई तो? में क्या करूँगा ? मेरा क्या होगा ? मुझे कौन पूछेगा ? यह...नहीं सुधरेगा तो ? यदि बिगड गया तब क्या होगा...?" प्रादि असंख्य विचार उनके मस्तिष्क में तूफान पैदा करते रहते हैं ।
पर-पदार्थों के अभाव में अथवा उनके बिगड जाने की कल्पना मात्र से जीव को दुःख के पहाड़ टूट पडने जैसा आभास होता है । वह भयाकुल हो काँप उठता है ! उसका मन निराशा की गर्त में फंस जाता है ! वह खिन्न हो उठता है ! मुख-मंडल निस्तेज हो जाता है ! पर-पदार्थों के आस-पास चक्कर काटने में वह अपने प्रात्मस्वभाव को पूर्णतया भूल जाता है । प्रात्मा की सरासर उपेक्षा करता रहता है। परिणाम यह होता है कि वह प्रात्म-स्वभाव और उसकी लीनता की घोर उपेक्षा कर बैठता है ! ऐसी अवस्था में भयाक्रांत नहीं होगा तो भला क्या होगा?
_इसीलिए ज्ञानी पुरुषों ने आदेश दिया है कि पर-पदार्थों की अपेक्षावत्ति को हमेशा के लिए तिलांजलि दे दो ! प्रात्म-स्वभाव के प्रति रहे उपेक्षाभाव को त्याग दो ! भयभ्रान्त अवस्था की विवशता, व्याकुलता और विषाद को नामशेष कर दो ! इतना करने से हमेशा के लिए तुम्हारे मन में धर कर बैठी पर-पदार्थों की अपेक्षावृत्ति खत्म हो जाएगी। परपदार्थों के अभाव में तुम दुःखी नहीं बनोगे, निराश नहीं होंगे ! फल यह होगा कि तुम्हारे रिक्त मनमें आत्म-स्वभाव की मस्ती जाग पड़ेगी ! भय के परिताप से दग्ध मस्तिष्क शांत हो जाएगा ! निर्भयता की खुमारी और विषयविराग की प्रभावी अभिव्यक्ति हो जाएगी। भय की आँधी थम जाएगी और जीवन में शारदीय रात की शीतलता एवं धवल ज्योति रूप निर्भयता का अविरत छिड़काव होने लगेगा ।
भवसौख्येन कि भरिभयज्वलनभस्मना ।
सदा भयोज्झितज्ञान-सुखमेव विशिष्यते ॥२॥१३०॥ अर्थ : असंख्य भयरुपी अग्नि-ज्वालाओं से जलकर राख हो गया है, ऐसे
सांसारिक सुख से भला क्या लाभ ? प्राय: भय मुक्त ज्ञानसुख ही श्रेष्ठ है ।
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