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निर्भयता
यस्य नास्ति परापेक्षा स्वभावाद्वतगामिनः ।
तस्य कि न भयभ्रान्ति-क्लान्ति, सन्तानतानवम् ॥१॥१२६।। अर्थ : जिसे दूसरे की अपेक्षा नहीं है और जो स्वभाव की एकता को प्राप्त
करनेवाला है, उसे भय की भ्रान्ति मे हुए खेद की परम्परा की
अल्पता क्यों न होगी ? विवेचन : क्या तुमने कभी सोचा है कि तुम्हारे जोवन-गगन में भय के बादल किस कारण घिर आये हैं ? क्या कभी विचार किया है कि भय का भ्रम किस तरह पैदा होता है ? अनेक प्रकार के भय से तुम दिन-रात....प्रशांत और संतप्त हो, फिर भी कभी यह सोचने का कष्ट नहीं उठाते कि वह क्या है, जिसकी वजह से तुम भयाग्नि में धू-ध जल रहे हो।
क्या तुम्हारी यह प्रांतरिक इच्छा है कि सदा के लिए तुम भयमुक्त हो जायो ? तुम्हारे निरभ्र जीवन-गगन में निर्भयता का सूर्य प्रकाशित हो, और तुम उसी प्रकाश-पुज के सहारे निर्विघ्नरूप से मोक्षमार्ग पर चल पडो ! ऐसी झंखना, आकांक्षा है क्या तुम्हारे मन में ? पूज्यपाद उपाध्यायजी महाराजने भयमुक्त होने के लिए दो उपाय सुझाये हैं :
० पर-पदार्थों की उपेक्षा ० स्व-भाव। अद्वैत की अपेक्षा!
भय-भ्रान्त अवस्था का निदान भी पूज्यश्री के इसी कथन से स्पष्ट होता है ।
० पर-पदार्थों की अपेक्षा !
० स्वभाव- अद्वत की उपेक्षा ! आइए, हम इस निदान को विस्तार से समझने का प्रयत्न करें !
"पर पदार्थ यानि अात्मा से भिन्न.... दूसरी वस्तू ! जगत में ऐसे पर-पदार्थ अनंत हैं ! अनादिकाल से जीव इन्हीं पर-पदार्थों के सहारे जीवित रहने अभ्यस्त हो गया है । अरे, उसकी ऐसी दृढ मान्यता बन गई है कि, 'पर-पदार्थों की अपेक्षा से ही जीवित रह सकते हैं ! शरीर वैभव, संपत्ति, स्नेही-स्वजन, मित्र-परिवार, मान-सन्मान,
और इनसे सम्बंधित पदार्थों की स्पृहा, ममत्व और रागादि से वह बार-बार भयाक्रांत बन जाता है ।
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