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________________ मध्यस्थता २१९ वस्त्रहीन नगर में सरे आम निकल पड़ा और जो भी तर्क उसको अपने मत के पोषक प्रतीत हुए, अनुकल लगे, उन्हें ग्रहण कर एकांगी बन गया । यह सब करते हुए उसने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का विचार नहीं किया । उसने उत्सर्ग और अपवाद का विचार नहीं किया। वह अपने मत का ऐसा दुराग्रही बन गया कि सापेक्षवाद का भी विचार नहीं किया ! 'वस्त्रधारी मोक्ष नहीं पा सकता,' इसी एक हठाग्रह के कारण वह यथार्थ वस्तु स्वरूप के बोध से सर्वथा वंचित रह गया । मतलब, हमेशा युक्ति को परख कर उस का अनुसरण करते रहो । ० नयेषु स्वार्थसत्येषु मोघेषु परचालने । समशीलं मनोयस्य स मध्यस्थो महामुनिः॥३॥१२६॥ अर्थ :- अपने-अपने अभिप्राय में सच्चे और अन्य नयों के वक्तव्य का निराकरण करने में सर्वथा निष्फल नयों में जिन का मन सम-स्वभावी है, ऐसे मुनिवर बाकई में मध्यस्थ है। विवेचन : प्रत्येक नय अपने-आप में सत्य होता है, वास्तविक होता है, लेकिन जब वह एक-दूसरे के दृष्टिबिन्दु का खंडन करते हैं तब असत्य होते हैं । ___'स्वाभिप्रेतेनैव धर्मेणावधारणपूर्वकं वस्तु परिच्छेतुमभिप्रैति स नयः। जिस का अभिप्राय, अपने अभिलषित धर्म के निर्णयपूर्वक वस्तु का ज्ञान पाने का है, उसे नय कहा जाता है । जब एक नय किसी वस्तु के सामान्य प्रश का प्रतिपादन कर, वस्तु को उस स्वरुप में देखने समझने का आग्रह रखता है और दूसरा नय वस्तु के विशेष अंश का प्रतिपादन कर उसे उस स्वरूप में जानने की चेष्टा करता है, तब जो मनुष्य मध्यस्थ नहीं है, वह किसी एक नय की युक्ति को सत्य मान, दूसरे नय के वक्तव्य को असत्य करार दे बैठता है। फलतः वह एक नय का पक्षधर बन जाता है। लेकिन मध्यस्थ-वृत्तिं वाला, समभाववाला मुनि सभी नयों को सापेक्ष मानता है। मतलब यह कि वह प्रत्येक नय के वक्तव्य का सापेक्ष-दृष्टि से ... नयवाद : परिशिष्ट देखिए.. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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