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________________ उपसंवहार ५०५ . ज्ञानविहीन क्रिया के खद्योत बनकर ही संतुष्ट रहनेवाले और आजीवन ज्ञान की उपेक्षा करनेवालों को ग्रन्थकार के इन वचनों पर अवश्य गहरायी से चिंतन-मनन करना चाहिए और ज्ञानोपासक बन कर ज्ञान-सूर्य बनने का प्रयत्न करना चाहिये ।। चारित्रं विरतिः पूर्णा ज्ञानस्योत्कर्ष एव हि । ज्ञानाद्वतनये दृष्टिया तद्योगसिद्धये ॥८॥ अर्थ : संपूर्ण विरतिरुप चारित्र वास्तव में ज्ञान का अतिशय ही है ! अतः योग-सिद्धि के लिए केवल ज्ञान-नय में दृष्टिपात करने जैसा है । विवेचन : ज्ञान की सर्वोत्कृष्ट अवस्था यानी चारित्र ! . ज्ञान-निमग्नता यानी चारित्र ! .... पूर्ण विरतिरुप चारित्र क्या है ? वह ज्ञान का ही एक विशिष्ट अतिशय है । ज्ञानाद्वैत में दृष्टि प्रस्थापित करनी चाहिए । अर्थात् ज्ञानाद्वैत में ही लीन हो जाना चाहिए । यदि तुम्हें योग-सिद्धि करना है, आत्मा का परम विशुद्ध स्वरूप प्राप्त करना है तो ! . ज्ञान और क्रिया के द्वैत का त्याग करो। क्योंकि त में अशान्ति है ! जब कि अद्वैत में परम आनन्द है और है असीम शान्ति । ज्ञानात का मतलब ही आत्माद्वत । अतः आत्मा के अद्वत में अपनी दृष्टि केन्द्रित करो । सजग रहो कि दृष्टि कहीं अन्यत्र भटक न जाए । ज्ञानसार का उपसंहार करते हुए उपाध्याय श्री यशोविजयजी ज्ञानाद्वैत का शिखर बताते हैं ! ज्ञान-क्रिया के द्वैत में से बाहर निकलने का, मुक्त होने का भारपूर्वक विधान करते हैं ! ज्ञान की सर्वोत्कृष्ट परिणति यही पूर्ण चारित्र है। उक्त चारित्र के सुहाने सपनों का चाहक जीव ज्ञानात में तल्लीन हो जाए, तभी पूर्णता प्राप्त कर सकता है। निश्चयनय के दिव्य-प्रकाश को चारों दिशाओं में प्रसारित करनेवाले उपाध्यायजी महाराज ने ज्ञान में ही साध्य, साधन और सिद्धि निर्देशित कर ज्ञानमय बन जाने का आदेश दिया है ! साथ ही क्रियामार्ग की जडता को झटककर ज्ञानमार्ग का अनुसरण करने की प्रेरणा दी है। 'ज्ञान त में लीनता हो !' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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