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ज्ञानसार
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कृतमाहास्त्रवैफल्यं ज्ञानवर्म बिति य : !
क्व भीस्तस्य क्व वा भंग. कर्मसंगरकेलिषु ॥६॥१३४॥ अर्थ :- जिस ने मोहरुपी शस्त्र को निष्फल बना दिया है, ऐसा ज्ञानरूप
कवच धारण किया है, उसको कम-संग्राम की क्रीडा में भय कैसा और
पराजय भी कैसे संभव है ? विवेचन : कर्मों के खिलाफ संग्राम !
संग्राम खेलनेवाले हैं मुनिराज !
मुनिराज इस संग्राम में पूर्णतया निर्भय और अजेय हैं ! भय का कहीं नामोनिशान नहीं और पराजय की गंध तक नहीं !
कर्म के सनसनाते मोहास्त्रों की बौछार होने पर भी मुनिवर के मुखारविंद पर भय की रेखा तक नहीं, बल्कि मंद-मंद स्मित बिखरा है । मन में अदम्य मस्ती है और युद्ध का अपूर्व उल्लास है ।
जिन मोहास्त्रों का सामना करते हुए तिस्मारखाँ को भी धिग्घी बंध जाएँ, बड़े-बड़े राजा-महाराजाओं के चक्के छूट जाएँ और बड़े बड़े पहलवानों का दिल दहल जाएँ, धरती को कम्पायमान करनेवाले रथी-महारथी सुध-बुध खो बैठे, ऐसे तीक्ष्ण मोहास्त्रों को मार के बावजूद मुनिवर अटल-अचल और धीर-गंभीर खडे रहते हैं ! आश्चर्य की बात ही है ! यदि उनकी इस अडिग वृत्ति और निश्चलता का रहस्य जानना हो तो, तनिक निकट जाइए ! उन्हें एक नजर देखिए ! तब तुम्हारी शंका कुशंकाओं का निराकरण होते विलम्ब नहीं लगेगा !
। मनिराज का कवच तो देखो ! वह लोहे का नहीं, कछए की खाल का नहीं और ना ही किसी रासायनिक अथवा 'प्लेस्टिक' का है। वह कवच है ज्ञान का ! ज्ञान-कवच !
हाँ, उन्हों ने ज्ञान-कवच धारण कर रखा है । कर्म लाख प्रयत्न करें, अपने पास रहे मोहास्त्रों का भंडार खाली कर दें, लेकिन ज्ञानकवच के प्रागे सब निष्फल है ! वैशाली की नगरवधु रूपसुंदरी कोशा के यहाँ महायोगी स्थुलभद्रजी इसी ज्ञान-कवच को धारण कर बैठे थे ! दीर्घावधि तक मोहास्त्रों की बौछार....शर-संधान होता रहा, लेकिन कोइ असर नहीं हुआ। मुनिराज निर्भय थे । परिणामस्वरुप,
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