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[ ज्ञानसार
परिसह : __ मोक्ष मार्ग में स्थिर होना और कर्मनिर्जरा के लिए सम्यक सहन करने को परिसह कहते हैं । परन्तु यह परिसह जीवन की स्वाभाविक परिस्थितियों में से उत्पन्न हुए कष्ट होते हैं। परिसह में कोई देव, मनुष्य या तिर्यंच के अनुकूल-प्रतिकूल हमले नहीं होते हैं। परिसह का उद्भवस्थान मनुष्यों का स्वयं का मन होता है । बाह्य निमित्तों को प्राप्त कर मन में उठता हुआ क्षोभ है । ये परिसह २२ प्रकार के हैं। 'नवतत्व प्रकरण' आदि ग्रन्थों में इनका स्पष्ट वर्णन मिलता है।
(१) क्षुधा : भूख लगना । (२) पिपासा : प्यास लगना । (३) शीत : सर्दी लगना । (४) ऊष्ण : गर्मी लगना । (५) दंश : मच्छरों आदि से तकलीफ । (६) अचेल : जीर्ण वस्त्र पहनना । (७) अरति : संयम में अरुचि । (८) स्त्री : स्त्री को देखकर विकार होना । (8) चर्या : उन विहार ।। (१०) नैषधिकी : एकान्त स्थान में रहना । (११) शय्या : ऊंची नीची खड्ड वाली जमीन पर रहना । (१२) आक्रोश : दूसरों का क्रोध या तिरस्कार होना । (१३) वध : प्रहार होना । (१४) याचना : भिक्षा मांगना । (१५) अलाभ : इच्छित वस्तु नहीं मिलना । (१६) रोग : रोग की पीड़ा होना । (१७) तृणस्पर्श : संथारे पर बिछाये हुए घास का स्पर्श । (१८) मल : शरीर पर मैल (कचरा) जमना । (१६) सत्कार : मान-सम्मान मिलना । (२०) प्रज्ञा : बुद्धि का गर्व । (२१) अज्ञान : ज्ञान प्राप्त नहीं होना । (२२) सम्बकत्व : जिनोक्त तत्त्व में संदेह करना ।
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