________________
उपसर्ग-परिसह ]
[ ५५ तीसरी पोरसी में आहार-विहार करे । शेषकाल में कायोत्सर्ग ध्यान में रहे ।
जंघाबल क्षीण हो जाय, विहार न कर सके तो भी एक क्षेत्र में रहते हुए दोष न लगने देवें और अपने कल्प का अनुपालन करें ।
स्थविरकल्पी मुनि पुष्टालंबन से अपवाद-मार्ग का भी आसेवन करे । स्थविरकल्पी मुनि गुरुकुलवास में रहें और गच्छवास की मर्यादाओं का पालन करे ।
१६. उपसर्ग-परिसह . उपसर्ग का अर्थ है कष्ट, आपत्ति ।
जब श्रमण भगवान महावीर देव ने संसारत्याग किया था तब इन्द्र ने प्रभु से प्रार्थना की थी :
"प्रभो ! तवोपसर्गाः भूयांसः सन्ति ततो द्वादशवर्षों यावत् वैयावत्यनिमित्तं तवान्तिके तिष्ठामि !"
हे प्रभो ! आपको अनेक उपसर्ग हैं इसलिए बारह वर्ष तक मैं वैयावच्च (सेवा) के लिए आपके पास रहता हूं।'
भगवान को उपसर्ग आये अर्थात् कष्ट हुए। ये उपसर्ग तीन वर्गों से आते हैं। १. देव २. मनुष्य ३. तिर्यंच। इन तीन की तरफ से दो प्रकार के उपसर्ग होते हैं: १. अनुकूल २. प्रतिकूल
(१) भोग-संभोग की प्रार्थना आदि अनुकूल उपसर्ग हैं ।। (२) मारना, लूटना, तंग करना आदि प्रतिकूल उपसर्ग हैं।
शास्त्रीय भाषा में अनुकूल उपसर्ग को 'अनुलोम उपसर्ग' कहते हैं और प्रतिकूल उपसर्ग को 'पडिलोम उपसर्ग' कहते हैं ।।
जिनको अंतरंग शत्रु काम-क्रोध-लोभ आदि पर विजय प्राप्त करने की साधना करनी हो उन्हें ये उपसर्ग समता भाव से सहन करने चाहिए। भगवान महावीर ऐसे उपसर्ग सहकर हो वीतराग-सर्वज्ञ बने थे । 1. जे केई उपसग्गा उप्पज्जति तं जहा दिव्वा वा माणुसा वा, तिरिक्ख-जोणिया वा, अणुलोमा वा, पडिलोमा वा, ते उप्पन्ने सम्मं सहइ, खमइ, तितिक्खइ, अहियासेइ ।
-कल्पसूत्रः सूत्र ११८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org