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________________ ज्ञानसार पसंद करते हैं। यदि तुम उनकी सुप्त इच्छा-अभिलाषा और कामना पूर्ण करने की अनुमति दो, एकाध आकर्षक जाल उन पर फेंक दो और उसे धर्म की संज्ञा दे दो, तो वे उसे खुशी-खुशी स्वीकार लेंगे। ऐसा तथाकथित धर्म अथवा सिद्धान्त विश्व के बहुसंख्य जीव सोत्साह ग्रहण कर अनुयायी बन जाएगे । लेकिन प्रश्न यह है कि इस से क्या आत्म-कल्याण संभव है ? ऐसा धर्म जीवों को दुःखों से मुक्त कर सकेगा ? क्या ऐसा धर्म तुम्हें मोक्ष का सुख प्रदान कर सकेगा? । जो दुर्गति में जाते जीवों को बचा न सके, वह भला धर्म कैसा ? आत्मा पर रहे कर्मों के बंधनों को छिन्न-भिन्न न कर सकें उसे धर्म कैसे कहा जाय ? विश्व का बृहत् मानव-समाज अज्ञानी ही होता है। भगवान महावीर के समय में भी गोशालक का अपना अनुयायी-वर्ग बहुत बडा था ! उससे क्या गोशालक का मत स्वीकार्य हो सकता है ? वास्तव में 'बहुमत से जो आचारण किया जाए उसका ही आचरण करना चाहिए, 'यह मान्यता अज्ञानमूलक है । आजकल व्याख्यान में भी कई व्याख्याता इस बात का ध्यान रखते हैं कि बृहत् समाज, श्रोतावृन्द क्या सुनना चाहता है ? उसका अनुशीलन कर बोलो....!' लोकरूचि का अनुसरण करने से लोकहित की भावना सिद्ध नहीं होती ! क्यों कि आम समाज की रुचि प्रायः आत्मविमुख होती है. जड मूलक होती है । उस का अन्धानुकरण करने से क्या लोक-हित संभव है ? नहीं इसलिये तो लोक-संज्ञा के अनुसरण का भगवान ने निषेध किया है ! सिर्फ उसी बात का अनुसरण करना श्रेयस्कर है, जिससे आत्महित और लोकहित दोनों संभव हो। जो आत्महित अथवा लोकहित की व्याख्या मे ही अनभिज्ञ हैं, उन्हें अवश्य यह अप्रिय लगेगा ! लेकिन केवल मुट्ठीभर लोगों के लिए आत्महित का उपदेश बदल नहीं सकते। अलबत्ता, प्राणी मात्र की रुचि आत्मोन्मुख बनाने के प्रयत्न अवश्य करने चाहिए और उसके लिए लोकरुचि का ज्ञान होना जरूरी है। यह ज्ञान प्राप्त करने में लोकसंज्ञा का अनुसरण नहीं है । ठीक उसी तरह कभी-कभार श्री जिनवचन की निंदा के निवारण हेतु लोकाभिप्राय का अनुसरण किया जाए तो उसमें लोकसंज्ञा का सवाल नहीं उठता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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