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लोकसंज्ञा-त्याग
प्रसंगोपात सयम-रक्षा एवं आत्मरक्षा हेतु लोक-अभिप्राय का अाधार लिया जाए तो वह लोकसंज्ञा नहों कहलाती । लेकिन प्रवचन, संयम
और आत्मा की विस्मृति कर लोकरजनार्थ, लोक-प्रशसा प्राप्त करने हेतु लोकरूचि का अनुसरण किया जाए तो वह लोकसंज्ञा है ।।
__ लोक-अभिरूचि का अनुसरण करनेवाले कई मिथ्यामतों का विश्व में उदय होता है और का न्तिर से अस्त भी । लेकिन उनके मत के अनुसरण से मोक्ष-प्राप्ति कदापि संभव नहीं ।
श्रेयोऽर्थिनो हि भयांसो लोके लोकोत्तरे न च !
स्तोका हि रत्नवणिज : स्तोकाश्च स्वात्मसाधका ॥५॥१८॥ अर्थ : वास्तव में देखा जाए तो लोक-मार्ग और लोकाक्तर-मार्ग में मोक्षार्थियों
की सख्या नगण्य ही है। क्योंकि जंसे रत्न की परख करने वान नौ री बहुत कम होते हैं, वैसे प्रात्मोन्नति हेतु प्रयत्न करनेवालों की संख्या न्यून ही होती है ।
विवेचन :- मोक्षार्थी= मोक्ष के अर्थी ।
___ यानी सर्व कर्मक्षय के इच्छुक ! प्रात्मा की परम विशुद्ध अवस्था की प्राप्ति के अभिलाषी....! ऐसे जीव भला लोकमार्ग में और लोकोत्तरमार्ग में कितने होंगे ? न्यून हा होते हैं, नहीवत् । जिसकी गणना अगुली पर को जा सकती है !
दुनिया में रत्न की परख रखनेवाले जौहरी भला कितने होंगे ? बहुत कम । उसो तरह आत्मसिद्धि के साधक कितने ? नहीवत् !
मोक्ष ? जहाँ शरीर नहीं, इन्द्रियाँ नहीं, इन्द्रियानुकूल भोगोपभोग नहीं, और विषयसुख की अभिलाषा में से उत्पन्न होनेवाले कषाय नहीं। व्यापार-वारिणज्य नहीं, संसार के बहुत बड़े वर्ग के मन में यह उलझन घर कर गई है कि, आखिर मोक्ष में क्या है ? वहाँ जाकर क्या करें? क्योंकि उन के पास मोक्ष के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान नहीं और ना ही मोक्ष-सुख की कोई वास्तविक कल्पना है । तब भला, मोक्षर्थी कैसे हो सकते ? ठीक वैसे ही लोकोत्तर... जिनेश्वरदेव-प्रणीत मोक्ष-मार्ग में भी कई जोव मोक्षार्थी नहीं होते । वे सब बीच के स्टेशन-स्वर्ग पर उतर जानेवाले होते हैं। जिनको मोक्ष की कल्पना भी न हो, ऐसे
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