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________________ ज्ञानसार लोग क्या मोक्ष-मार्ग पर चल सकते हैं ? आत्मविशुद्धि के अभिलाषी, लोकोत्तर मार्ग पर चलने वाले जीवों की संख्या मर्यादित ही होती है । लोकोत्तर-जिनभाषित मार्ग में भी लोकसंज्ञा सजाने से बात नहीं प्रातो । अन्य सज्ञानों पर नियंत्रण रखने वालों को भी यह अनादिकालीन संज्ञा सता सकती है । आहारांज्ञा पर काबू रखनेवाला तपस्वी जो मासक्षमण, अठ्ठाई, अठ्ठम....छठ्ठ उपवास अथवा वर्धमान आयंबिल तप का पाराधन करता हो... उस के भी यह लोकसंज्ञा पाडे आये बिना नहीं रहती । मैथुन-संज्ञा को वश में रख पूरी निष्ठा के साथ ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले को भी लोकसंज्ञा पीडा पहुँचा के रहती है। परिग्रह संज्ञा को वशीभूत करने वाले अपरिग्रही महात्माओं को यह संज्ञा इशारों पर नचाती है । ऐसे कई उदाहरण इतिहास के पृष्टों पर अंकित हैं, जो लोकसंज्ञा की कहानी आप ही कहते नजर आते हैं। अरे, पुराने जमाने की बात छोड़ दो, आज के युग में भी ऐसे कई प्रसंग प्रत्यक्ष देखने में आते हैं । "मेरी तप-त्याग की आराधना, दान-शील की उपासना, परमार्थपरोपकार के कार्यों से अन्य जीवों को अवगत करू... आम जनता की दृष्टि में 'मैं बड़ा आदमो बनूं ।'... लोकजिह्वा पर मेरी प्रशंसा के गीत हो....।" यह लोकसंज्ञा का एक रुपक है । इस तरह लोक-प्रशंसा के इच्छुक धर्माराधक जीव अपनी त्रुटियाँ, क्षतियाँ और दोषों के छिपाने का हेतूपूर्वक प्रयत्न करता है। आमतौर से वह भयसंज्ञा से पीडित होता है ! "यदि लोग मेरे दोष जान लेंगे तो बड़ी बदनामी होगी।' सदैव यह चिंता उसे खाये रहती है । वह दिन-रात उद्विग्न-अन्यमनस्क और अशांत दृष्टिगोचर होता है | वास्तव में देखा जाए तो लोकसंज्ञा की यह खतरनाक कार्यवाही है । लौकिकमार्ग में तो उस का एकछत्री प्रभाव है ही, लोकोनर-मार्ग में भी कोई कम प्रभाव नहीं है । लोकसंज्ञा के नागपाश में फंसी आत्मा मोक्ष-मार्ग की आराधना करना भूल जाती है और अपने लक्ष्य को तिलांजलि दे देती है । इसीलिए तो ऐसो महाविनाशकारी लोक-संज्ञा का परित्याग करने के लिए भारपूर्वक कहा गया है । अतः जीव को हमेशा समझना चाहिए : 'हे आत्मन् ! ऐसा सर्वांग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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