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________________ ४७७ निर्मलता, विमलता, पवित्रता और दृढता लाना है।" जिन-पूजा में निरन्तर प्रगति होती जाती है । जिनेश्वरदेव के प्रति उसके हृदय में श्रद्धाभाव और भक्ति की अनूठी वृद्धि होती रहती है ! शरणागति का भाव दृढतर होता रहता है। समर्पण-भाव में उत्कटता का आविर्भाव होता है । जिनेश्वरदेव की द्रव्य-पूजा और भाव-पूजा में उत्साह को तरंगें छलकती रहती हैं। कषायों का क्षयोपशम होता रहता है । क्रोध, मान, माया और लोभ में क्षोणता पाती है । कषायों को उदय में नहीं आने देता है । साथ ही उदित कषायों को सफल नहीं होने देता है । 'तपस्वी के लिए कषाय शोभाजनक नहीं,' यह उसका मुद्रालेख बन जाता है । क्योंकि कषाय में खोया तपस्वी, तपश्चर्या की निंदा में निमित्त होता है । उस से तपश्चर्या की कीमत कम होती है । अतः कषायों का क्षयोपशम, यह तपश्चर्या का मूल हेतु/उद्देश्य होना चाहिए ! सानुबन्ध जिनाज्ञा का पालन ! किसी प्रकार की प्रवृत्ति करने के पूर्व 'इसके लिय जिनाजा क्या है ? कहीं जिनाज्ञा का भंग तो नहीं हाता !' आदि विचारों को जागृति जरूरी है। "आज्ञा की आराधना कल्याणार्थ होती है, जबकि उसकी विराघना संसार के लिए होती है ।' जिनाज्ञा की सापेक्षता के लिए तपस्वी सदैव सजग-साबधान रहे । यदि इन चार बातों की सावधानी बरत कर तपश्चर्या की जाय तो तपश्चर्या का कितना उच्च मूल्यांकन हो? ध्येयविहीन... दिशाशून्य बनकर परलोक के भौतिक सुखों के लिए शरीर को खपाते रहने में कोई विशेष अर्थ निष्पन्न नहीं होगा। साथ हो, किसी जन्म में तो मोक्ष-प्राप्ति होगी ही,' आदि आशय से की गयी कम-ज्यादा तपश्चर्या से प्रात्मा का उद्धार असंभव है ! अतः चार बातों का होना अत्यंत आवश्यक है । ब्रह्मचर्य का पालन, जिनेश्वरदेव का पूजन, कषायो का क्षय और जिनाज्ञा का पारतंत्र्य ! वह भी ऐसा अलौकिक पारतंत्र्य चाहिए कि भवोभव जिनचरण का आश्रय/शरण प्राप्त हो और भवभ्रमण की शृखला टूट जाएँ, छिन्न-भिन्न हो जाएँ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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