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तदेव हि तपः कार्यं दुर्ध्यानं यत्र नो भवेत् । येन योगा न हीयन्ते क्षीयन्ते नेन्द्रियाणि च ॥७॥२४७॥
ज्ञानसार
अर्थ : वास्तव में जहां दुर्ध्यान हो, जिस से मन-वचन काया के योगों को हानि न पहुंचे और इन्द्रियों का क्षय न हो ( क्रिया करने में अशक्त न बने) ऐसा तप ही करने योग्य है ।
विवेचन : ऐसी दृढ़ता कि, 'कुछ भी हो जाए, लेकिन यह तप तो करना ही है !' किसे हर्षित नहीं करेगी ? ऐसी दृढता प्रकट करने वाला मुमुक्षु सभी के आदर का पात्र और अभिनंदनीय होता है !
तपस्वी के लिए दृढता आवश्यक है ! नियोजित तप को पूर्ण करने की क्षमता चाहिए । लेकिन सिर्फ तपश्चर्या पूर्ण करने की दृढता से ही उसे वीरता प्राप्त नहीं होती ! उसके लिए निम्नांकित प्रकार की सावधानी भी जरूरी है :
- दुर्ध्यान नही होना चाहिए ।
मनोयोग-वचनयोग- काययोग को किसी प्रकार की हानी नहीं पहुँचनी चाहिए, अथवा मुनि-जीवन के कर्तव्य-स्वरूप किसी योग को नुकसान न पहुँचे ।
- इन्द्रियों को किसी प्रकार को हानी नहीं पहुँचनी चाहिए । दुर्ध्यान के कई प्रकार हैं । कभी-कभी दुर्ध्यान करनेवाले को कल्पना तक नहीं होती कि वह दुर्ध्यान कर रहा है । दुर्ध्यान का मतलब है दुष्ट विचार, अनुपयुक्त विचार । तपस्वी को कैसे विचार नहीं करने चाहिए, यह भी कोई कहने की बात है ? 'यदि मैंने यह तप नहीं किया होता तो अच्छा रहता.... मेरी तपश्चर्या की कोई कदर नहीं करता.... कब पूर्णाहूति होगी ?' ऐसे विचार हैं, जो दुर्ध्यान कहलाते हैं ।
यदि तपश्चर्या करते हुए शारीरिक अशक्ति कमजोरी आ जाए तब कोई सेवा - भक्ति न करे तो दुर्ध्यान होते देर नहीं लगती । लेकिन यह नहीं होना चाहिए । हमेशा आर्तध्यान से बचना चाहिए। योगों की किसी प्रकार की हानी न हो । दुध्यान से मन की, कषाय से वचन की और प्रमाद से काया की हानि होती है ।
प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन, स्वाध्याय, गुरुसेवा, ग्लानसेवा, शासनप्रभावनादि साधु-जीवन के योग हैं । इन में किसी प्रकार की शिथिलता
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