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________________ स्थिरता २६ वह ज्ञान स्वरूप में न रहकर उसमें विकार की भर पड जाती है और तब वह आत्मोन्नति, अथवा आत्म-विशुद्धि नहीं कर सकता, अपितु अपने क्रिया-कर्मों से आत्मा को विमोहित कर पतन के गहरे गड्ढे में धकेल देता है । बर्तन दूध से भरा हुआ हो और उसमें थोड़ी सी खट्टाई भी मिला दी जाए, तब भी वह बिगड जाता है । मनुष्य के किसी काम का नहीं रहता । जब कि हमारे पास तो दूध कम है और खट्टाई का प्रमाण अधिक है । फिर तो दूध विगडते भला कौन सी देर लगेगी ? ठीक इसी तरह हमारे पास ज्ञान की मात्रा अल्प है और पौद्गलिक सुखों की स्पृहा अधिक है । उसका कोई पारावार नहीं है । तब भला वह ज्ञान, ज्ञानरूप में रह सकता है क्या ? इसीलिये यदि ज्ञानामृत को अपने आत्मज्ञान को सुरक्षित रखना हो, अन्त तक उसे उसके मूल स्वरूप में कायम रखना हो तो निःसन्देह हमें पोद्गलिक आकर्षण / आसक्ति का त्याग करना ही होगा । हमें चंचलता, विक्षिप्तता प्रौर अस्थिरता को तिलांजलि देनी ही होगी। क्योंकि वह खट्टे पदार्थ जैसी घातक, मारक और बाधक है । मथुरा के प्राचार्य मंगु के पास ज्ञानामृत से भरा कुंभ था । लेकिन उसमें रसनेन्द्रिय से तरबतर विषयों की स्पृहा की खट्टाई मिल गयी । परिणामत: उसमें अस्थिरता और चंचलता की भर पड़ गयी । ज्ञान, विष में परिवर्तित हो गया और आचार्यश्री को मोक्ष प्राप्ति के बजाय दुर्गति की राह में भटकना पड़ा । यदि तुम्हें इस मार्ग में नहीं जाना है तो 'स्थिर बनो, दृढ़ बनो ।' अर्थ अस्थिरे हृदये चित्रा, वाङ नेत्राकारगोपना । पुंश्चल्या व कल्याणकारिणी न प्रकीर्तिता ॥ ३ ॥ १६ ॥ : यदि चित्त सर्वत्र भटकता है, तो विचित्र वाणी, नेत्र, प्रकृति और वेषादि का गोपन करने रूप क्रिया [ धर्मक्रियायें ] कुटनी स्त्री की तरह कल्याणकारिणी नहीं कहीं गयी हैं । विवेचन: जिस नारी के मन में पराये पुरुष के लिए प्रेम हो, स्नेहभाव भरा पड़ा हो और ऊपरी तौर पर वह पतिव्रता होने की डींग मारती है, पति-भक्ति प्रदर्शित करती है, दिल को लुभाने वाली बातें करती है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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