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ज्ञानसार
अज्ञान को आभारी है । जिस गति से वस्तुस्वरुप-विषयक अज्ञान दूर होता जाएगा, उस गति से आत्म-रमरणता आती रहेगी और परभाव में भटकने की क्रिया क्रमश: कम होती जाएगी । फलतः 'अनुभव' तरफ की उर्ध्वगामी गति शुरु होगी। शाश्वत्....परम ज्योति में विलीन होने की गहरी तत्परता प्रकट होगी और तब जीवन-विषयक जड़ता का उच्छेदन कर अनुभव के प्रानन्द को वरण करने का अप्रतिम साहस प्रकट होगा। ऐसी स्थिति में अज्ञान के निबिड़ अन्धकार तले दबी चेतना, ज्ञानज्योति की किरणों का प्रसाद प्राप्त कर परम तृप्ति का अनुभव करेगी।
ब्यापार: सर्वशास्त्राणां दिकप्रदर्शनमेव हि ।
पारं तु प्रापयत्येकोऽनुभवो भववारिधेः ॥२॥२०२।। अर्थ :- वस्तुत: सर्व शास्त्रों बार उद्यम दिशा-दर्शन कराने का ही है। लेकिन
सिर्फ एन. अनुभव ही संसारसमुद्र से पार लगाता है । विवेचन :- न जाने कैसा कर्कश कोलाहल मचा है ? ..
___शास्त्रार्थ और शब्दार्थ के एकांतिक आग्रह ने हलाहल से भी भयंकर विष उगल दिया है....और इसके फूत्कार साक्षात् फणिधर के फत्कारों को भी लज्जित कर रहें हैं....। कोई कहता हैं : "हम ४५ आगम मानते हैं !' कोई कहता है : "हम ३२ आगम ही मानते हैं !" जबकि कुछ का कहना है : "हम पागम ही नहीं मानते !"
कैसा घोर कोलाहल ? और किसलिये ? क्या उनके द्वारा मान्य शास्त्र उन्हें भव-पार लगाने वाले हैं ? क्या शास्त्र उन्हें निर्वाण-पद के अधिकारी बनाने वाले हैं ? यदि शास्त्रों के बल पर ही भव-सागर पार उतरना संभव होता तो आज तक हम यों भटकते नहीं! क्या भूतकाल में कमी हम शास्त्रों के ज्ञाता, निर्माता और पंडित नहीं बने होंगे? अरे, नौ 'पूर्व' का ज्ञान प्राप्त किया था, फिर भी उक्त पूर्वी का ज्ञान, 'शास्त्र ज्ञान' हमें भवपार नहीं उतार सका ! भला, क्यों? इस पर कभी गहरायी से सोचा है ? चिंतन-मनन किया कभी कारण जानने का ? तब शास्त्र को लेकर शोरगुल मचा, अशांति क्यों फैला रहे हो ? शास्त्र का भार उठा कर भव-सागर में डुबने की चेष्टा क्यों
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