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________________ मध्यस्थता २२१ कहता है हाथी रस्से जैसा है। चौथा कहता है "हाथी ढोल जैसा है" पांचवा कहता है "हाथी अजगर जैसा है ।" छठा कहता है "हाथी लकड़ी जैसा है" और सातवां सबको झूठा करार दे, कहता है "हाथी घड़े जैसा है।" सातों अंधों की बात और परस्पर हो रहे वाद-विवाद को समीप ही खड़ा एक सज्जन चुपचाप सुन रहा है । क्या वह किसी के प्रति पक्षपात करेगा ? किसी का पक्षधर बन कर क्या यों कहेगा : 'अमुक सही कह रहा है और अमुक झूठ बोल रहा है ?" तनिक सोचिए, अपने दिमाग को कसिए, क्या वह यों कह सकेगा ? नहीं, हगिज नहीं कहेगा । अपितु मध्यस्थ भाव से कहेगा तो यह कहेगा: “भाइयों, तुम सब अपने-अपने विचार, मत के अनुसार सच कह रहे हो । क्यों कि तुम्हारे हाथ में हाथी का जो अवयव आया, उसी का तुम अपने-अपने हिसाब से वर्णन कर रहे हो ! लेकिन तुम सभी के कथन का सामूहिक रुप है हाथी !' स्वस्वकर्मकृतावेशः स्वस्वकर्मभुजो नराः ।। न रागं नापि च द्वष मध्यस्थस्तेषु गच्छति ॥४॥१२४॥ अर्थ : जिन्होंने अपने-अपने कर्मों का आग्रह किया है, वैसे अपने अपने कर्मो को भोगने वाले मनुष्य हैं ! इसमें मध्यस्थ पुरुष राग नहीं करता है । विवेचन : राग-द्वेष की शिथिलता-स्वरुप मध्यस्थ दृष्टि प्राप्त करने के लिए जगत् के जड़-चेतन द्रव्यों को और उनके पर्यायों को सही रुप में देखना चाहिए। यदि प्रत्येक परिस्थिति को, हर एक प्रसंग को और एक एक कार्य को यथार्थ स्वरूप में देखा जाए, यानी उसके कार्यकारण भाव को समझा जाए तो नि:संदेह राग-द्वेष की उत्पत्ति नहीं होगी। इस दृष्टि से केवलज्ञान के साथ वीतरागता का सम्बन्ध यथार्थ है। केवलज्ञान में विश्व के प्रत्येक द्रव्य....पर्याय, संयोग, परिस्थिति और हर कार्य, यथार्थ स्वरुप में वास्तविक कार्य-कारणभाव के रुप में दिखायी देता है। फलतः, राग-द्वेष का प्रश्न ही नहीं उठता। तात्पर्य यही है कि जैसे-जैसे विश्व के पदार्थों का यथार्थ-दर्शन होता जायेगा, वैसे-वैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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