________________
विवेक :
___ * आत्मा स्वतंत्र रूप से ज्ञान-दर्शन में केलि-क्रीड़ा करती है ! जानने-समझने और देखने-परखने का काम करती है ! अतः स्वयं आत्मा 'कर्ता' है।
* ज्ञानसहित परिणाम का आत्मा आश्रय-स्थान है । अतः आत्मा 'कर्म' है।
* उपभोग के माध्यम से ज्ञप्तिक्रिया (जानने की क्रिया) में उपकारक होती है ! अतः आत्मा ही 'करण' है ।।
___* प्रात्मा स्वयं ही शुभ परिणाम का दानपात्र है ! अतः आत्मा 'संप्रदान' है। वही ज्ञानादि पर्यायों में पूर्व पर्यायों के विनष्ट होने से और आत्मा से उसका वियोग हो जाने के कारण, आत्मा ही 'अपादान' है।
* समस्त गुण-पर्यायों के आश्रयभूत प्रात्मा के असंख्य प्रदेश रूपी क्षेत्र होने की वजह से प्रात्मा ही 'अधिकरण' है।
आत्मचिंतन की ऐसी अनमोल दृष्टि खोल दी गयी है, कि जिस में आत्मा प्रात्मा के ही प्रदेश में निश्चित होकर परिभ्रमण करती रहे । जड-पुद्गलों के साथ का सम्बंध विच्छिन्न हो जाए और आत्मा के साथ अटूट बन्धन में जुड़ जाए। कर्तृत्व आत्मपरिणाम का दिखायी दे और कार्य आत्म-गुणों की निष्पत्ति का ! सहायक भी आत्मा और संयोग-वियोग भी आत्मा के पर्यायों में दिखायी दे । साथ ही सब का आधार भी आत्मा ही लगे ! बस, इसका ही नाम है विवेक ।
जब तक इस विवेक का अभाव होता है तब तक जड़-पुद्गलों के कर्ता के रुप में आत्मा का भास होता है । कार्यरुप जड़-पुद्गल दिखायी देते हैं। करणरुप जड़-इन्द्रियां और मन, एवं संप्रदान, अपादान, अधिकरण के रूप में भी जड-पद्गल ही दिखायी देते हैं। आत्मा और पुद्गलों के अभेद की कल्पना पर ही समस्त संबंधों को कायम किए जाते हैं । अतः सारी दुनिया विषमताओं से परिपूर्ण नजर आती है । विषमताओं से परिपूर्ण विश्व को देखनेवाला भी विषमता से घिर जाता है । जड़-चेतन के अभेद का अविवेक अनन्त यातनाओं से युक्त संसार में जीव को गुमराह और भटकते रहने के लिए प्रेरित कर देता है ।
तात्पर्य यह है कि जगत में जो नाते-रिश्ते होते हैं, उन सब का मात्मा के साथ विनियोग कर देना चाहिए । आत्मा, आत्मगुण और
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org