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स्थिरता
२७ वत्स ! किं चंचलस्वान्तो भ्रान्त्वा भ्रान्त्वा विषीदसि ?
निषि स्वसन्निधावेव स्थिरता दर्शयिष्यति ॥१॥१७॥ अथ : हे वत्स ! तू चंचल प्रवृत्ति के बन के भटक-भटक कर क्यों विषाद
करता है ? तेरे पास रहे हुए निधान को स्थिरता बतायेगी। विवेचन : तुम्हारा तन और मन क्या चंचल बन गया है ? तुम अपने
आप में क्या अगणित चिताओं और सोच-विचारों में फंस गये हो ? तब भला क्यों इधर-उधर भटक रहे हो ? गाँव-गाँव और दर-दर क्यों फिर रहे हो ? पर्वत गुफायें और घने जंगलों की नाक क्यों छान रहे हो ? निष्प्रयोजन भटकाव अच्छा नहीं । उससे तुम्हें कौन सा गडा खजाना मिल जाने वाला है ? वह आज तक किसी को मिला नहीं और भविष्य में भी मिलने वाला नहीं है । यह शाश्वत् सत्य है । यदि तुम्हें विश्वास न हो ता तुम्हारे साथ निरन्तर भटकती तुम जैसो अन्य
आत्माओं को पूछ देखो ! वे भी तुम्हारी तरह ही संतप्त और प्रशान्त हैं । अपने आप से पूछो कि इस कदर भटकने से कहीं खजाना मिला है सो मिल जाएगा ? और फिर तुम जिसे खजाना समझ बैठे हो, वह खजाना नहीं, असीम सुख और परम शान्ति देने वाली अपूर्व सांपदा नहीं, बल्कि एक छलावा है, मृगजल है !
हम तुम्हें रोक नहीं रहे हैं, साथ ही यह भी नहीं कहते कि तुम खजाने की खोज न करो । उसे पाने के लिए प्रयत्नशील न बनो । अपितु हम यह कहना चाहते हैं कि वहाँ खोजो, जहाँ सचमुच खजाना है । उसके होने की पूरी संभावना है । नाहक चिन्ता न करो, शोक से विह्वल न बनो, हताश न हो । हम तुम्हें खजाना बताते हैं । तुम एकाग्र मन से उसे खोजने का प्रयत्न करो । अधीर और अस्थिर होने से काम नहीं चलेगा, बल्कि पूर्ण मनोयोग से प्रयास करो । खजाना मिलते देर नहीं लगेगी और वह भी ऐसा मिलेगा कि जिससे तुम्हारा तन-मन प्रानन्द से थिरक उठेगा । तुम्हारे सारे संताप और दु:ख क्षरण भर में खत्म हो जाएंगे। फलतः तुम्हें परम शान्ति का अनुभव होगा।
और इसके लिए एक ही उपाय है, 'स्थिर बनो'! आत्म-निग्रही बनो ! मतलब, अपने मन में रही पौद्गलिक पदार्थों की स्पृहा को नष्ट करना/बाहर निकाल फेंकना और जीवात्मा के ज्ञानादि गुणों
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