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________________ १७ क्रिया की हो । वह यदि किसी को पार लगाने की चेष्टा करेगा तो खुद तो डूबेगा ही, अपितु दूसरे को भी डूबोएगा । क्रियाविरहितं हन्त, ज्ञानमात्रमनर्थकम् । गति विना पथज्ञोऽपि, नाप्नोति पुरमीप्सितम् ॥२॥६६॥ अर्थ : क्रियारहित मात्र ज्ञान सचमुच किसी काम का नहीं । चलने की क्रिया के प्रति उदासीन, मार्ग जानने वाला व्यक्ति भी इच्छित नगर नहीं पहुंच सकता । विवेचन : दिल्ली से बंबई की दूरी तुम भलीभांति जानते हो । तुम्हें यह भी मालूम है कि दिल्ली से बंबई किस मार्ग से जाया जाता है । राजमार्ग तुम जानते हो और रेल्वे-मार्ग की जानकारी भी तुम्हें है । तुम से यह भी छिपा नहीं है कि दिल्ली-बंबई का कितना किराया है । यह तो ठीक, हवाई-मार्ग की सही जानकारी भी तुम्हें है ।। लेकिन यदि तुम प्रवास की पूर्व तैयारी न करो, पदयात्रा प्रारंभ न करो अथवा रेल्वे से प्रवास करने की क्रियारूप टिकट खरीद कर रेल में बैठने का कष्ट न करो तो भला, दिल्ली पहुँच पाओगे क्या? नहीं पहुँचोंगे । अतः हमें गन्तव्य स्थान पर भले ही वह बंबई हो अथवा दिल्ली, क्रिया तो करनी ही होगी । सिर्फ मार्ग की जानकारी प्राप्त करने मात्र से इष्ट स्थान पर पहुँचा नहीं जाता। ज्ञान के आधार पर गति-क्रिया करनी ही होगी। . तुमने मोक्ष-मार्ग की जानकारी हासिल कर ली। आत्मा पर छाये अष्ट-कर्मों को जान लिया, उन कर्मों के विच्छेदन की क्रिया भी अवगत कर ली, लेकिन अगर समुचित पुरुषार्थ, परिश्रम न करो तो जानकारी हासिल करने का कोई महत्व नहीं है । इससे समस्या हल होनेवाली नहीं है, ना ही बात बनने वाली है। इससे विपरीत अधिकाधिक हानि/नुकसान होने की ही संभावना है। . मोक्ष-मार्ग के लिये आवश्यक क्रिया का त्याग कर यदि कोई जीवात्मा ज्ञान के बल पर ही मोक्ष-प्राप्ति करना चाहता हो तो यह उसका निरा भ्रम है । एक प्रकार की कपोल-कल्पना है। मोक्ष-मार्ग के अनुकूल क्रियाओं की उपेक्षा करनेवाला मनुष्य ज्ञान-बल से मिथ्या Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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