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ज्ञानसार
सकोगे । आत्मधर्म की प्राप्ति होने पर कर्म-क्षय होते विलम्ब नहीं होगा । जैसे जैसे कर्मक्षय होता जाएगा वैसे-वैसे धर्मतत्त्व के साथ तुम्हारा नाता जुड़ता जाएगा ।
फलस्वरूप काल, स्वभाव, भवितव्यता श्रादि के दोषों को नजरअंदाज कर किस पद्धति से कर्म-क्षय किया जाएँ इसका सदा-सर्वदा चिंतन-मनन करते रहो । कर्म को भूलकर यदि 'काल बुरा है, भवितव्यता अच्छी नहीं हैं, बहानेबाजी की, तो याद रखो, कर्म तुम्हारे सीने पर चढ बैठेंगे | तुम्हें समय-बेसमय पागल बना देंगे । फलस्वरूप तुम अशांति...... दुःख.... पश्चात्ताप.... कलह और संताप के होम-कुण्ड में बुरी तरह झुलस जाओगे । प्रत: धर्म में पुरुषार्थं करो । कर्मों के भय का गांभीर्य समझो । प्रमाद, मोह और आसक्ति की श्रृंखलाएँ तोड दो और कर्मक्षय हेतु कटिबद्ध हो जाओ ।
असावचरमावते धर्मं हरति पश्यतः ।
चरमावतिसाधोस्तु छलमन्विष्य हृष्यति ॥ ॥७॥१६७॥
अर्थ :
यह कर्म विपाक अंतिम 'पुद्गलपरावर्त' के अतिरिक्त अन्य किसी भी पुद्गलपरावर्त में हमारी आँखों के सामने धर्म का नाश करता है, परंतु चरम पुद्गलावर्त में रहे हुए साधु का छिद्रान्वेषण कर खुश होता है । विवेचन : चरम पुद्गलावर्त-काल !
अचरम पुद्गलावर्त - काल !
'पुद्गलपरावर्त' किसे कहा जाएँ - इसकी जानकारी तुम परिशिष्ट में से प्राप्त कर लेना । यहाँ तो सिर्फ कर्म का काल के साथ और काल के माध्यम से आत्मा के साथ कैसा सम्बन्ध है, यहां बताया गया हैं । जब तक आत्मा अंतिम पुद्गलावर्त काल में प्रविष्ट न हो जाएँ तब तक लाख प्रयत्न करने के बावजूद भी कर्म आत्मधर्म को समझने नहीं देता, ना ही उसे अंगीकार करने देता है । मनुष्य, भगवान के मंदिर अवश्य जाएगा, नित्य पूजा-पाठ करेगा, लेकिन परमात्म-स्वरूप को प्राप्ति की इच्छा से नहीं, वरन् सांसारिक सुख और संपदा की अभिलाषा लेकर जाएगा । गुरू महाराज को वंदन करेगा, भिक्षा देगा, भक्ति करेगा, वैयावच्च श्रौर सेवा करेगा, लेकिन सम्यग् दर्शन, ज्ञान और चारित्र के लिए नहीं, अपितु स्वर्गलोक की ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त करने के
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