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________________ कर्मविपाक-चिन्तन ३०७ __ इसी वजह से कर्म के अनुचितन और क्षय हेतु जीव को पुरुषार्थ करना होता है । कर्मक्षय हेतु कर्म ने ही मनुष्य को अनुकूल सामग्री प्रदान की है। खुद को मिटाने के लिए कर्म स्वयं आगे बढकर जीव को सामग्री प्रदान कर रहा है । * तुम्हें मनुष्यगति प्राप्त है ? * तुमने प्रार्य-भूमि में जन्म धारण किया है ? * तुम्हें तन-बदन का आरोग्य मिला है ? तुम्हारी पांचों इन्द्रियाँ परिपूर्ण हैं ? तुम्हें चिंतन-मनन के लिए मन मिला है ? • तुम्हें सुदेव, सुगुरु, और सद्धर्म का संयोग मिला है ? कर्म-क्षयहेतू और भला, किस सामग्री की आवश्यकता है ? इस से वठिया और विशेष सामग्रो को अब भी क्या गरज है ? तो क्या कर्म-क्षय की भावना भी कर्मों को ही जगानी पड़ेगी, पैदा करनी होगी? सचमुच कितनी बेहंदी बात है ? संभवतः तुम अब भी कम की पिशाचलीला से परिचित नहीं हो । यदि तुमने अनुकूल परिस्थिति और सामग्री का समय रहते सदुपयोग न किया तो वह उसे दुबारा छिन लेगा और फिर तुम्हारी ऐसी बुरी हालत करेगा कि तुम फूट-फूट कर रोओगे। लेकिन उसके सिकंजे से छूट नहीं पाओगे । तब एक श्रण ऐसा पाएगा कि तुम कर्मों के गुलाम बन जाओगे । यदि तुम प्राप्त सामग्री का योग्य उपयोग करोगे तो वह (कर्म) तुम्हें इससे भी बढकर और अमूल्य सामग्री प्रदान करेगा। फलत: उससे तुम अपने सभी कर्मों का सरलता से नाश कर सकोगे । . जिस तरह कर्मों को तुम प्रत्यक्ष में देख नहीं सकते, ठीक उसी तरह तुम्हें उसका क्षय भी प्रत्यक्ष में नहीं दिखने वाले धर्म से ही करना होगा । यह सनातन सत्य है कि धर्म से कर्म नष्ट होते हैं । धर्म प्रात्मा का है, लेकिन प्रात्मा तक पहुँचने के लिए तुम्हें अपनी पांचों इन्द्रियाँ और मन का सदुपयोग करना पड़ेगा । संसार के तुच्छ सुख और सुविधा में भूलकर भी अपनी इन्द्रियों को और मन को न लगायो । तभी तम आत्मा की गहराई को स्पर्श कर पाओगे और आत्मधर्म प्राप्त कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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