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परिग्रह-त्याग
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शिलाओं को उखाड़ फेंक दिया है । फिर तुम पर पूदगल का प्रभाव कैसे रह सकता है....? द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावादि का बन्धन कैसे शक्य है ? ध्यान रखो, चेतना-शक्ति किसी बंधन को नहीं मानती । साथ ही जबरन कोई उस पर नियंत्रण लाद नहीं सकता।
___ "मुझे ऐसे ही, अमुक प्रकार के वस्त्र चाहिये, ऐसे ही पात्र चाहिए ऐसी ही पेन.... घड़ी और लेटरपेड़ चाहिए, ऐसा ही आसन चाहिए, "आदि द्रव्याग्रह जोगी ! तुम्हें शोभा नहीं देता। क्या इन द्रव्यों के बिना तुम्हें नहीं चलता ? तब इन द्रव्यों को अपेक्षा तुम्हारे मन को निरंतर क्षब्ध रखेगी ।।
"मुझे तो देहात में अथवा नगर में ही रहना है, मुझे निर्जन स्थान पसंद नहीं.... लोगों का सिलसिला, मुझे अच्छा लगता है.... उनका निरन्तर आवागमन भाता है । मुझे सुन्दर सुख-सुविधाओं से युक्त उपाश्रय पसंद है । मैं ऐसे देहात मे रहना पसंद करता है, जहाँ अधिक गर्मी न पड़ती हो, यह है क्षेत्राग्रह । क्षेत्र का नियंत्रण जोगी पर ? या जोगी का नियंत्रण क्षेत्र पर ? अरे भाग्यशाली ! तुम्हें कहाँ एक ही क्षेत्र में वास करना है ? तुम क्षेत्र-निरपेक्ष बन विचरण करते रहो। देहात हो या धना जंगल, कठिनाई हो या सुलभता, तुम्हें सदैव ज्ञाना-- नन्द में मस्त रहना है । तुम अपने आप को कदापि अपूर्ण न मानो। ज्ञान की परिपूर्णता का आभास होते ही पुदगल से पूर्ण अथवा सुखी बनने की कल्पना/आकांक्षायें भाप बनकर उड़ जायेंगी ।
"मुझे तो शरद-ऋतु ही भाती है । ग्रीष्म ऋतु में तो बारह बज जाती है और वर्षा में लगातार बारिश होती है-ऐसे स्थान पर रहना मेरे लिए पूर्णतया असंभव है ।" क्या ऐसा काल-प्रतिबन्ध तुम्हें अहनिश सताता है ? ऐसे काल-सापेक्ष विकल्पों की प्रचण्ड लहरें रह-रहकर गहराती रहती हैं ? तब यह नि:संदिग्ध सत्य है कि तुम 'चिन्मय' नहीं बन पाये ! अव भी पुद्गलनियंत्रण के कारावास में तुम बन्द हो । ___तुम्हें भाव-सापेक्षता की पीड़ा तो नहीं सताती न ? “मेरा नित्य प्रति गुणानुवाद हो, लोग सदा मेरी जयजयकार करते रहे, प्रशसा-गीत की झड़ा लग गई हो और मान-सन्मान के कार्यक्रमों का लंबा सिलसिला चलता हो । सुगंधयुक्त सुरभित वाताबरण हो ।” अर्थात् जीवों
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